मेरे शब्दों ने मुझे नई पहचान दी या मेरे दर्द ने कहना जरा मुश्किल है लेकिन तुम कहो मैं तुमसे पूछना चाहता हूं तुम्हारा दर्द कितना गहरा है कितनी गहराई में डूबे हैं तुम्हारे शब्द,अपने ही शब्द इन कोरे पन्नो पर भरते हुए क्या तुम तन्हा होते हो?क्या उसी तन्हाई में तुम्हारी आत्मा जीवित होती है जो जानती है सच्चाई को,सच्चाई जीवन की, सच्चाई मृत्यु की,सच्चाई सुख,सच्चाई दुःख की, "बिना दर्द के कलम नही उठती होगी तुम्हारी बहुत भारी जो है सच्चाई में बहुत बजन होता है दर्द का कहीं ना कहीं हाथ थामना पड़ता होगा"अपने पीड़ित मन को कहाँ ले जाते हो तुम समझाने के लिए क्या उन पन्नो के पीछे हाँ उन पन्नो के ही पीछे शायद जहाँ तुम अपने दर्द अपने जज्बातों को बिखेर देते हो शब्दों के रूप में.....तो मैं तुमसे पूछता हूं
तुम क्या लिखते हो ?
किसी बच्चे,किसी अनाथ का रोना या
किसी गरीब का भूखे पेट आलापना
तो मैं तुमसे पूछता हूं
तुम क्या लिखते हो ?
किसी विधवा की कुछ पुरानी यादें या
किसी तलाकशुदा की अकेली काली रातें
तो मैं तुमसे पूछता हूं
तुम क्या लिखते हो ?
किसी की आंखों का वो सुना-सुना इंतज़ार या
किसी के झूठे वादे,ठुकराया हुआ प्यार
तो मैं तुमसे पूछता हूं
तुम क्या लिखते हो ?
किसी नई-नवेली दुल्हन की टूटती चूड़ीयाँ या
रिश्तों के बंधन में बंधी मज़बूरी की बेड़ियाँ
तो मैं तुमसे पूछता हूं
तुम क्या लिखते हो ?
देश की मज़बूरी,नेताओं का अत्याचार या
किसी शहीद का बलिदान उसका रोता परिवार
तो मैं तुमसे पूछता हूं
तुम क्या लिखते हो ?
किसी अबला पर उठी निगाहें उसका बलात्कार या
बम फटने की कहानी वो आतंकवाद वो नरसंघार
तो मैं तुमसे पूछता हूं
तुम क्या लिखते हो ?
माँ-बाप के आंसूं बेटी की विदाई या
बेटों की डांट माँ-बाप की पिटाई
तो मैं तुमसे पूछता हूं
तुम क्या लिखते हो ?
तुम क्यूँ लिखते हो ?
ये दर्द तुम्हारा नही फिर भी
इस अजनबी दर्द को कैसे जी लेते हो ?
यदि मैं भी इस दर्द को जीने लग जाउं
तो तुम,तुम ना
रहो और मैं,मैं ना रहूं ?
शायद मेरे सवालों का यही जवाब है..........
अक्षय-मन