शुक्रवार, 22 जुलाई 2011

जमाना


इस ज़माने को मैं कैसे जमाना कह दूँ 
जमाना तो वो था जिसमे हम जवान हुए

वो मीठे बोल में छुपी शरारतें और वो सुहावनी रातें 
वो चाँद की ही गोद थी जिसमे हम जवान हुए 

अब कहाँ सुनता हूं मैं वो पाजेब की छन-छन 
मिटटी का वो आगन था जिसमे हम जवान हुए 

ना पडोसी से है कोई रिश्ता ना अपनों से है नाता 
वो गली-कूचे थे जिसमे हम जवान हुए....

इस ज़माने को मैं कैसे जमाना कह दूँ 
जमाना तो वो था जिसमे हम जवान हुए 
अक्षय-मन 


बेखुदी


बेखुदी में भी क्या खुमारी है 

ये ज़िन्दगी अब कहाँ हमारी है 

मर तो जाते हम बरसो पहले 
भूल जाते गर,ये जान तुम्हारी है 

                                         बेखुदी में भी क्या खुमारी है 
ये ज़िन्दगी अब कहाँ हमारी है 

आहिस्ता से इन धडकनों को छुओ 
दिल को मेरे कोई बीमारी है

लुटने को दर पे खड़ा तेरे "अक्षय"
कहने को तो ये भिखारी है...

                                           बेखुदी में भी क्या खुमारी है 
ये ज़िन्दगी अब कहाँ हमारी है 
अक्षय मन 

मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

अनोखा आभास

अनोखा आभास

एकरूप थी एक रंग थी मैं शब्दों से अतरंग थी
पीड़ा की डोर बंधी उड़ती बहती बेकल पतंग थी

जीवन मेरा, जो एक वृक्ष सा अटल खड़ा था
पल दो पल का साथी हर पत्ता ,ना कोई उमंग थी


व्याकुल है आतुर है ये कोरा कैसा आभास है
निशब्द पड़े कुछ पन्ने कलम पड़ी बेरंग थी

भीगे भीगे नयनो से जब वो लम्बी अश्रुधार बही
विचारों के आसमां में जो घटा उठी सतरंग थी

भावनाओं से ओत-प्रोत तुम खोल दो विरह हृदय की
मन-दर्पण के प्रतिबिम्ब में एक अलौकिक तरंग थी

एक हूं,तेरे अनुरूप हूं,कभी छाँव थी,अब धूप हूं
जीवन रूप बदलता गया बस मैं एकरंग थी
अक्षय-मन

शनिवार, 30 जनवरी 2010

तस्वीर टूटे आईने की..


अँधेरी राहों से मैंने तुमको जब गुज़रते हुए देखा
चाँद कि परस्तिश में जैसे चांदनी को जलते हुए देखा

यूँ दिल में दबा नहीं सकते उन दहकते शोलों को
वो रंजिश-ओ-ग़म तेरी आँखों में सुलगते हुए देखा

वक़्त के साथ यूँ तो बढ़ जाएगी सासें मेरी
हर लम्हे को जिंदगी ने मगर,थमते हुए देखा

इस तन्हाई को तुम अब तन्हा ही रहने दो मौला
हमने खामोश समुन्द्रों को जलजलों में बदलते हुए देखा

कोई तपिश है या सुलगती आग सीने में कैद
सूरज को मैंने अश्को सा पिघलते हुए देखा

इन कागजों में दर्द को आखिर समेट लूँ कितना
मैंने जिंदगी को पन्नो कि तरहां बिखरते हुए देखा

अक्षय-मन

शुक्रवार, 13 नवंबर 2009

कोरा इतिहास

कितनी तन्हाई,कितने थे आंसू कितना उदास था मैं
तुझसे बिछड़ के तू ही बता दे कितना पास था मैं

चाँद भी,आसमा भी और हैं सितारे सब वहां
तेरी धरती पर फलक की अनबुझी प्यास था मैं

वो आँगन,वो दीवारें,वो तख्त-ओ-ताज-ओ-महल
वो दरवाजे वो खिड़कियाँ और इंतज़ार की आस था मैं

रिश्तों के दायरों ने कुछ ऐसे जकड़ लिया था मुझे
समझ नही आता कितना अजनबी कितना ख़ास था मैं

कहीं तस्वीरें,कहीं अक्स तो कहीं परछाइयाँ दिखाई देती हैं तुझे
मेरा कोई वजूद नही जनता हूं,सिर्फ़ महज आभास था मैं

धरती पर आ गिरी निर्मल निवस्त्र चांदनी लेकिन
काले बादलों के रूप में चाँद का लिबास था मैं....

"अक्षय" निशब्द था मौन था तुम्ही बताओ मैं कौन था
क्या महज कोरे कागजों पे लिखा कोरा इतिहास था मैं
अक्षय-मन

रविवार, 8 नवंबर 2009

कुछ रंग जिंदगी के ये भी हैं ..


बदल गया है रात का रंग सुबह का रंग क्या होगा
बचपन अपना भूल गया जवानी का रंग क्या होगा

सिमट गए हैं सपने सभी एक फटी-पुरानी चादर में
रात की सोती सड़कों पर उन सपनो का रंग क्या होगा

वक्त कहीं गया नही फिर भी वक्त की कमी क्यूँ है आज
जिंदगी जी ली जैसे-तैसे अब मौत का रंग क्या होगा

हर पल हर वक्त एक नई कहानी जन्म लेती है यहाँ
जिंदगी जिससे लिखी गई उस सियाही का रंग क्या होगा

"अक्षय" गुमनामियों मे खो रहा है हर बात से अनजान
जो ढूंढ़ता रहा है मुझे हर वक्त उस आईने का रंग क्या होगा
अक्षय-मन

बुधवार, 1 जुलाई 2009

ये वक़्त


कितने लोगों में अकेला नज़र आता है ये वक़्त
तनहा कितनी जिंदगियाँ जी जाता है ये वक़्त

जब हों पैरों में पत्थर,तो हाथ नही बढते
ठोकर लगे तो उठना सिखाता है ये वक़्त

प्यार-मोहब्बत में मजहब,उम्र और जात की बातें
दुआ मिलकर करोगे तुम,तो हाथ उठाता है ये वक़्त

किसी ने मेरा बचपन तो किसी ने जवानी न सुनी
सुन सको तो सुनलों हर लम्हा सुनाता है ये वक्त

लब्जों को मिल जाती है जब ख्यालों की उड़ान
सफहों सा रंगा आसमां,पंख फैलाता है ये वक़्त

"अक्षय" तेरे होंसलों को देख छुप-छुपकर
आईने में ख़ुद को निहारता है ये वक़्त

(इस तस्वीर को देख कुछ और शब्द दिल में आते हैं)

हाथों की लकीरों पर वक़्त ने कुछ सितारे लिखें हैं
काले बादलों की रात में भी जगमगाता है ये वक़्त

अक्षय-मन

रविवार, 28 जून 2009

बूंदों की सौगात

मौसम को देखते कुछ उसका रूप शब्दों से निखारा है
हमने देखें हैं कई रंग तुम्हारे मगर ये रंग हमारा है


बरसों मेघा,बरसों मेघा
आज धरा ये प्यासी है
नील-गगन में,नील-गगन में
क्यूँ छाई गहरी उदासी है ।

झोंका पवन का आने से
पत्ता कोई शर्माता है
प्यार बरसा कर इस धरा पर
देख गगन मुस्काता है ।

भीगा फिरसे आज वो बचपन
यादों की इस बारिश में
बरसों बाद ख़ुद से मिला हूं
सावन भी है इस साजिश में ।

नीचे लिखीं कुछ पंक्तियाँ मेरे पापा के लिए जो न होकर भी मेरे साथ हैं
कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में...

नयन मेरे नम पड़े हैं
पहली इस बरसात में
हमसे दूर गए,वो बिछडे मिले हैं
बूंदों की सौगात में ।

अक्षय
-मन

बुधवार, 24 जून 2009

तुमने अपनी कला से.....

पत्थरों में भी जान होती है ये मैंने तुमसे जाना है
इस पत्थर को जीवित कर दिया तुमने अपनी कला से...

रंगों में भी पहचान होती है ये मैंने तुमसे जाना है
इन रंगों को नया नाम दिया तुमने अपनी कला से....

हाथों में भी दुआ होती हैं ये मैंने तुमसे जाना है
इन हाथों से संसार संवार दिया तुमने अपनी कला से....

मौन चित्रों में आवाज होती है ये मैंने तुमने जाना है
इन चित्रों को एक सुर दिया तुमने अपनी कला से...
अक्षय-मन

शनिवार, 20 जून 2009

एक लेखक को मेरा पत्र "तुम क्या लिखते हो ?"

मेरे शब्दों ने मुझे नई पहचान दी या मेरे दर्द ने कहना जरा मुश्किल है लेकिन तुम कहो मैं तुमसे पूछना चाहता हूं तुम्हारा दर्द कितना गहरा है कितनी गहराई में डूबे हैं तुम्हारे शब्द,अपने ही शब्द इन कोरे पन्नो पर भरते हुए क्या तुम तन्हा होते हो?क्या उसी तन्हाई में तुम्हारी आत्मा जीवित होती है जो जानती है सच्चाई को,सच्चाई जीवन की, सच्चाई मृत्यु की,सच्चाई सुख,सच्चाई दुःख की, "बिना दर्द के कलम नही उठती होगी तुम्हारी बहुत भारी जो है सच्चाई में बहुत बजन होता है दर्द का कहीं ना कहीं हाथ थामना पड़ता होगा"अपने पीड़ित मन को कहाँ ले जाते हो तुम समझाने के लिए क्या उन पन्नो के पीछे हाँ उन पन्नो के ही पीछे शायद जहाँ तुम अपने दर्द अपने जज्बातों को बिखेर देते हो शब्दों के रूप में.....
तो मैं तुमसे पूछता हूं
तुम क्या लिखते हो ?
किसी बच्चे,किसी अनाथ का रोना या
किसी गरीब का भूखे पेट आलापना
तो मैं तुमसे पूछता हूं
तुम क्या लिखते हो ?
किसी विधवा की कुछ पुरानी यादें या
किसी तलाकशुदा की अकेली काली रातें
तो मैं तुमसे पूछता हूं
तुम क्या लिखते हो ?
किसी की आंखों का वो सुना-सुना इंतज़ार या
किसी के झूठे वादे,ठुकराया हुआ प्यार
तो मैं तुमसे पूछता हूं
तुम क्या लिखते हो ?
किसी नई-नवेली दुल्हन की टूटती चूड़ीयाँ या
रिश्तों के बंधन में बंधी मज़बूरी की बेड़ियाँ
तो मैं तुमसे पूछता हूं
तुम क्या लिखते हो ?
देश की मज़बूरी,नेताओं का अत्याचार या
किसी शहीद का बलिदान उसका रोता परिवार
तो मैं तुमसे पूछता हूं
तुम क्या लिखते हो ?
किसी अबला पर उठी निगाहें उसका बलात्कार या
बम फटने की कहानी वो आतंकवाद वो नरसंघार
तो मैं तुमसे पूछता हूं
तुम क्या लिखते हो ?
माँ-बाप के आंसूं बेटी की विदाई या
बेटों की डांट माँ-बाप की पिटाई
तो मैं तुमसे पूछता हूं
तुम क्या लिखते हो ?
तुम क्यूँ लिखते हो ?
ये दर्द तुम्हारा नही फिर भी
इस अजनबी दर्द को कैसे जी लेते हो ?

यदि मैं भी इस दर्द को जीने लग जाउं
तो तुम,तुम ना रहो और मैं,मैं ना रहूं ?
शायद मेरे सवालों का यही जवाब है..........अक्षय-मन