मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

अनोखा आभास

अनोखा आभास

एकरूप थी एक रंग थी मैं शब्दों से अतरंग थी
पीड़ा की डोर बंधी उड़ती बहती बेकल पतंग थी

जीवन मेरा, जो एक वृक्ष सा अटल खड़ा था
पल दो पल का साथी हर पत्ता ,ना कोई उमंग थी


व्याकुल है आतुर है ये कोरा कैसा आभास है
निशब्द पड़े कुछ पन्ने कलम पड़ी बेरंग थी

भीगे भीगे नयनो से जब वो लम्बी अश्रुधार बही
विचारों के आसमां में जो घटा उठी सतरंग थी

भावनाओं से ओत-प्रोत तुम खोल दो विरह हृदय की
मन-दर्पण के प्रतिबिम्ब में एक अलौकिक तरंग थी

एक हूं,तेरे अनुरूप हूं,कभी छाँव थी,अब धूप हूं
जीवन रूप बदलता गया बस मैं एकरंग थी
अक्षय-मन

शनिवार, 30 जनवरी 2010

तस्वीर टूटे आईने की..


अँधेरी राहों से मैंने तुमको जब गुज़रते हुए देखा
चाँद कि परस्तिश में जैसे चांदनी को जलते हुए देखा

यूँ दिल में दबा नहीं सकते उन दहकते शोलों को
वो रंजिश-ओ-ग़म तेरी आँखों में सुलगते हुए देखा

वक़्त के साथ यूँ तो बढ़ जाएगी सासें मेरी
हर लम्हे को जिंदगी ने मगर,थमते हुए देखा

इस तन्हाई को तुम अब तन्हा ही रहने दो मौला
हमने खामोश समुन्द्रों को जलजलों में बदलते हुए देखा

कोई तपिश है या सुलगती आग सीने में कैद
सूरज को मैंने अश्को सा पिघलते हुए देखा

इन कागजों में दर्द को आखिर समेट लूँ कितना
मैंने जिंदगी को पन्नो कि तरहां बिखरते हुए देखा

अक्षय-मन