शुक्रवार, 29 मई 2009

कुछ त्रिवेणियाँ


(१)
हर रात वो मोती जैसा चमकता है
जब-जब चांदनी उसके चहरे पर पड़ती है

बस अमावस की रात ही पता नही चलता की वो आज रोया है या नही ।

(२)
इन हवाओं के साथ तेरी खुशबू अब क्यूँ आती है
तेरा जिस्म मुझको अब क्यूँ महसूस होता है

शायद शमशान में तेरी राख अब भी बाकी है,हवाओं का रुख बदलना पड़ेगा ।

(३)
हमें आसमां में बादलों के घर दिखाई देते हैं
मैं हर दिन घर के नक्शे बदलते हुए देखता हूं

तेरी तरहां खुदा भी अपने ठिकाने रोज बदलता होगा ।

(४)
मोहब्बत न होती तो ये गीत,ये ग़ज़ल न होती
तुम शायर बने तो आशिकों के रहमों-करम पर

मगर मैंने कभी ये सोचा न था की मैं भी आशिक बन जाउंगा ।

(५)
निकाह जो करलो तुम अपनी मज़बूरी,अपने हालातों से
कोई गम नही उम्र भर ये रस्मे जो निभानी पड़ जायें

जब तुमको खुशी मिल जाए,फिर इनको तलाक़ दे देना तुम ।

(६)
बिस्तर पर सिलवटें ,कुछ जानी-पहचानी सी लगती हैं
जिनको देख कुछ पुरानी यादें जाग जाती हैं

शायद तभी हम रात-रातभर करवटें लिया करते हैं ।
अक्षय-मन

मंगलवार, 26 मई 2009

बस गरीब ये चाहत हुई


हमें शराब पीने की अज़ब ये अच्छी आदत हुई
हकीक़त को हकीक़त बोल बैठे ना जाने कौन-सी आफत हुई

आबाद हैं अभी हम,हमको तबाह ना समझो मगर हाँ ये सच है
बे नज़ीर इस विलायती मोहब्बत में बस गरीब ये चाहत हुई

कोई कायदा भी है कुछ उसूल भी, हम बड़े मासूम गुनाहगार भी
हमको मालूम नहीं जुल्म भी अपना,फिर सजा किस कसूर के बाबत हुई?

आज फिर करते हैं होंसलों की बातें वो, जो खुद ही किसी आग में जलते हैं
हमें किसी की जरुरत नहीं अकेले में इक सुकून मिला कुछ राहत हुई

कहीं दिलों में कुछ ख्वाब थे 'अक्षय' तो कहीं निगाहों में कुछ हकी़कत
हम आईने से लड़ा करते थे तक़दीर को लेकर न जाने कैसी हालत हुई ।
"अक्षय-मन "