शुक्रवार, 13 नवंबर 2009

कोरा इतिहास

कितनी तन्हाई,कितने थे आंसू कितना उदास था मैं
तुझसे बिछड़ के तू ही बता दे कितना पास था मैं

चाँद भी,आसमा भी और हैं सितारे सब वहां
तेरी धरती पर फलक की अनबुझी प्यास था मैं

वो आँगन,वो दीवारें,वो तख्त-ओ-ताज-ओ-महल
वो दरवाजे वो खिड़कियाँ और इंतज़ार की आस था मैं

रिश्तों के दायरों ने कुछ ऐसे जकड़ लिया था मुझे
समझ नही आता कितना अजनबी कितना ख़ास था मैं

कहीं तस्वीरें,कहीं अक्स तो कहीं परछाइयाँ दिखाई देती हैं तुझे
मेरा कोई वजूद नही जनता हूं,सिर्फ़ महज आभास था मैं

धरती पर आ गिरी निर्मल निवस्त्र चांदनी लेकिन
काले बादलों के रूप में चाँद का लिबास था मैं....

"अक्षय" निशब्द था मौन था तुम्ही बताओ मैं कौन था
क्या महज कोरे कागजों पे लिखा कोरा इतिहास था मैं
अक्षय-मन

रविवार, 8 नवंबर 2009

कुछ रंग जिंदगी के ये भी हैं ..


बदल गया है रात का रंग सुबह का रंग क्या होगा
बचपन अपना भूल गया जवानी का रंग क्या होगा

सिमट गए हैं सपने सभी एक फटी-पुरानी चादर में
रात की सोती सड़कों पर उन सपनो का रंग क्या होगा

वक्त कहीं गया नही फिर भी वक्त की कमी क्यूँ है आज
जिंदगी जी ली जैसे-तैसे अब मौत का रंग क्या होगा

हर पल हर वक्त एक नई कहानी जन्म लेती है यहाँ
जिंदगी जिससे लिखी गई उस सियाही का रंग क्या होगा

"अक्षय" गुमनामियों मे खो रहा है हर बात से अनजान
जो ढूंढ़ता रहा है मुझे हर वक्त उस आईने का रंग क्या होगा
अक्षय-मन

बुधवार, 1 जुलाई 2009

ये वक़्त


कितने लोगों में अकेला नज़र आता है ये वक़्त
तनहा कितनी जिंदगियाँ जी जाता है ये वक़्त

जब हों पैरों में पत्थर,तो हाथ नही बढते
ठोकर लगे तो उठना सिखाता है ये वक़्त

प्यार-मोहब्बत में मजहब,उम्र और जात की बातें
दुआ मिलकर करोगे तुम,तो हाथ उठाता है ये वक़्त

किसी ने मेरा बचपन तो किसी ने जवानी न सुनी
सुन सको तो सुनलों हर लम्हा सुनाता है ये वक्त

लब्जों को मिल जाती है जब ख्यालों की उड़ान
सफहों सा रंगा आसमां,पंख फैलाता है ये वक़्त

"अक्षय" तेरे होंसलों को देख छुप-छुपकर
आईने में ख़ुद को निहारता है ये वक़्त

(इस तस्वीर को देख कुछ और शब्द दिल में आते हैं)

हाथों की लकीरों पर वक़्त ने कुछ सितारे लिखें हैं
काले बादलों की रात में भी जगमगाता है ये वक़्त

अक्षय-मन

रविवार, 28 जून 2009

बूंदों की सौगात

मौसम को देखते कुछ उसका रूप शब्दों से निखारा है
हमने देखें हैं कई रंग तुम्हारे मगर ये रंग हमारा है


बरसों मेघा,बरसों मेघा
आज धरा ये प्यासी है
नील-गगन में,नील-गगन में
क्यूँ छाई गहरी उदासी है ।

झोंका पवन का आने से
पत्ता कोई शर्माता है
प्यार बरसा कर इस धरा पर
देख गगन मुस्काता है ।

भीगा फिरसे आज वो बचपन
यादों की इस बारिश में
बरसों बाद ख़ुद से मिला हूं
सावन भी है इस साजिश में ।

नीचे लिखीं कुछ पंक्तियाँ मेरे पापा के लिए जो न होकर भी मेरे साथ हैं
कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में...

नयन मेरे नम पड़े हैं
पहली इस बरसात में
हमसे दूर गए,वो बिछडे मिले हैं
बूंदों की सौगात में ।

अक्षय
-मन

बुधवार, 24 जून 2009

तुमने अपनी कला से.....

पत्थरों में भी जान होती है ये मैंने तुमसे जाना है
इस पत्थर को जीवित कर दिया तुमने अपनी कला से...

रंगों में भी पहचान होती है ये मैंने तुमसे जाना है
इन रंगों को नया नाम दिया तुमने अपनी कला से....

हाथों में भी दुआ होती हैं ये मैंने तुमसे जाना है
इन हाथों से संसार संवार दिया तुमने अपनी कला से....

मौन चित्रों में आवाज होती है ये मैंने तुमने जाना है
इन चित्रों को एक सुर दिया तुमने अपनी कला से...
अक्षय-मन

शनिवार, 20 जून 2009

एक लेखक को मेरा पत्र "तुम क्या लिखते हो ?"

मेरे शब्दों ने मुझे नई पहचान दी या मेरे दर्द ने कहना जरा मुश्किल है लेकिन तुम कहो मैं तुमसे पूछना चाहता हूं तुम्हारा दर्द कितना गहरा है कितनी गहराई में डूबे हैं तुम्हारे शब्द,अपने ही शब्द इन कोरे पन्नो पर भरते हुए क्या तुम तन्हा होते हो?क्या उसी तन्हाई में तुम्हारी आत्मा जीवित होती है जो जानती है सच्चाई को,सच्चाई जीवन की, सच्चाई मृत्यु की,सच्चाई सुख,सच्चाई दुःख की, "बिना दर्द के कलम नही उठती होगी तुम्हारी बहुत भारी जो है सच्चाई में बहुत बजन होता है दर्द का कहीं ना कहीं हाथ थामना पड़ता होगा"अपने पीड़ित मन को कहाँ ले जाते हो तुम समझाने के लिए क्या उन पन्नो के पीछे हाँ उन पन्नो के ही पीछे शायद जहाँ तुम अपने दर्द अपने जज्बातों को बिखेर देते हो शब्दों के रूप में.....
तो मैं तुमसे पूछता हूं
तुम क्या लिखते हो ?
किसी बच्चे,किसी अनाथ का रोना या
किसी गरीब का भूखे पेट आलापना
तो मैं तुमसे पूछता हूं
तुम क्या लिखते हो ?
किसी विधवा की कुछ पुरानी यादें या
किसी तलाकशुदा की अकेली काली रातें
तो मैं तुमसे पूछता हूं
तुम क्या लिखते हो ?
किसी की आंखों का वो सुना-सुना इंतज़ार या
किसी के झूठे वादे,ठुकराया हुआ प्यार
तो मैं तुमसे पूछता हूं
तुम क्या लिखते हो ?
किसी नई-नवेली दुल्हन की टूटती चूड़ीयाँ या
रिश्तों के बंधन में बंधी मज़बूरी की बेड़ियाँ
तो मैं तुमसे पूछता हूं
तुम क्या लिखते हो ?
देश की मज़बूरी,नेताओं का अत्याचार या
किसी शहीद का बलिदान उसका रोता परिवार
तो मैं तुमसे पूछता हूं
तुम क्या लिखते हो ?
किसी अबला पर उठी निगाहें उसका बलात्कार या
बम फटने की कहानी वो आतंकवाद वो नरसंघार
तो मैं तुमसे पूछता हूं
तुम क्या लिखते हो ?
माँ-बाप के आंसूं बेटी की विदाई या
बेटों की डांट माँ-बाप की पिटाई
तो मैं तुमसे पूछता हूं
तुम क्या लिखते हो ?
तुम क्यूँ लिखते हो ?
ये दर्द तुम्हारा नही फिर भी
इस अजनबी दर्द को कैसे जी लेते हो ?

यदि मैं भी इस दर्द को जीने लग जाउं
तो तुम,तुम ना रहो और मैं,मैं ना रहूं ?
शायद मेरे सवालों का यही जवाब है..........अक्षय-मन

सोमवार, 15 जून 2009

बेपनाह रिश्ते और बुरे वक्त की एक खास बात....


मेरे इस दिल में तुम्हारा कुछ समान पड़ा है
कुछ यादें,कुछ जज़्बात और टूटे-फूटे से कुछ
एहसास...जिनपर बेदर्द इस वक्त की गर्द जमी पड़ी है
अब मैं चाहता हूं ये गर्द,ये यादें हमेशा के लिए इस बेरूह जिस्म के साथ
अपना दम तोड़ दें फ़ना हो जायें और तुम एक रात का अधूरा ख्वाब बनकर इन अंधेरों में हमेशा के लिए खो जाओ......
मैं जानता हूं वक्त मेरे लिए कभी नही बदलेगा और न तुम...मैं ही बदल जाउंगा अब तुम्हारे लिए,इस वक्त इस ज़माने के लिए ...
कसूर न मैं अपना मानता हूं न तुम और माने भी क्यूँ...
क्यूंकि हम एक दुसरे की दुःख तकलीफ तो समझते हैं
लेकिन जिस ज़िन्दगी में ये दुःख तकलीफ हैं
वो ज़िन्दगी ही नही समझ पा रहे हैं...
कुछ मजबूरियां हैं तुम्हारी जो मुझे कई बन्धनों में बाँध देती हैं
और ये बंधन भी कैसे जिनका कोई नाम कोई पहचान नही...
जानती हो हमारा रिश्ता अनाथ हो गया ये लावारिस और
बेपनाह हो गया...जो गुजरे वक्त के साथ न जाने कौन सी
गुमनामियों में खो गया....

मगर एक बात है जो मुझे अब भी सुकून देती है कुछ होंसला देती है वो
ये कि बुरे वक्त में भी एक खास बात होती है कि वो भी गुज़र जाता है.....अक्षय-मन

गुरुवार, 11 जून 2009

कुछ बातें अनकही अंतर्मन की

अंतर्मन के भावों से
ह्रदय-अमुक परिभाषित होगा
अग्न लगाते शब्दों का
अर्थ कोई अभिशापित होगा ।

जीवन-मृत्यु की पहेलियाँ
सुख-दुःख के भ्रम को सुलझाती है
काटों में जैसे अधखिली कलियाँ
खिल-खिलकर मुरझाती हैं ।

ह्रदय
मेरा निस्पंद हुआ है
अटकी सांसें प्राणों में
क्या हैं वो सब सत्य गाथायें ?
जो लिखी गीता-पुराणों में ।

नीर तेरे गंगा-जमुना
जिसकी हर बूंद पावन है
प्यासा मन आज भीगा है
नयनो से बरसा सावन है ।

समय की रेत मुठ्ठी से निकले
जीवन तुम बढ़ जाने दो
दुःख के पल-चिह्न जो ठहरे है
अश्रुओं संग बह जाने दो ।
अक्षय-मन

बुधवार, 10 जून 2009

ऐ गुस्से,नखरे वाली सुनो.....

जिस वक्त तुम इस आईने में ख़ुद को देखा करती हो
उस वक्त तुम मुझसे कम ख़ुद से ज्यादा मोहब्बत करती हो :)

अरे ! रहम करो,मेहरबानी करो,गुनाह हमारा है तो हमसे कहो
हम बन्दे हैं खुदा के और तुम खुदा से ही शिकायत करती हो

हकीक़त में तो हमने तुम्हे भुला दिया है बरसो-सालों से
मगर ख्वाबों में -आकर तुम फिर से शरारत करती हो

ऐ गुस्से,नखरे वाली सुनो,दिलसे ज़रा तुम काम तो लो
हम अनजाने चुप से बैठे हैं,देखें कितनी नफरत करती हो :)
अक्षय-मन

रविवार, 7 जून 2009

कलयुग की सीता

वहां देखो वो खड़ी अभिलाषा है,जिंदगी ने
धिक्कारा उसे परन्तु जीने की आशा है
नारी है लाचारी है,पहने फटी-पुरानी साड़ी है
अपना तन न ढक कर अपना बच्चा,
अपना आँचल संभाली है.......
दुखों के सागर में
सुखों का किनारा नही
डूबती है हर पल
उसे तिनके का सहारा नही...
इसके पश्चात् भी उसके नयनों में
कोई क्रोध,कोई प्रतिशोध नज़र नही आता
भूखी है,अध्नंगी है हर कोई उसे देखता जाता
बच्चा बिलखता,वो रोता जब बूंद-बूंद छाती से
दूध पानी बन निकलता.....
उसपर ये समाज कहता....
ये वक्त-वक्त की बात है.....
किसी ने दो शब्द कहे थोड़ा अफ़सोस किया
और वहां से अपने रास्ते चल दिया....
तुम्हारे पास वक्त नही....
और कहते हो वक्त-2 की बात है ....
वाह रे ! दुनिया क्या यही वक्त की परिभाषा है?????
नहीं- नहीं ये तो स्त्री है वक़्त के हाथों की कठपुतली है...
वक़्त को ये नहीं वक़्त इसे बदलता है
क्यूंकि हर पुरुष इसे अपने से कमजोर समझता है
कमजोर है क्यूंकि रीति-रिवाजों के बन्धनों में बंधी है....
क्या यही इस समाज का खोखला,अधूरा ढांचा है.....?
क्या यही वक़्त की परिभाषा,अधूरी अभिलाषा है.... ?
ये वक्त आज है यही वक्त कल भी था...
जब कोई सीता कुछ न कर पाई थी
क्यूंकि वो एक स्त्री थी...
यहाँ इस समाज में तब से अब तक न जाने कितनी सीता
जन्म लेकर आई होंगी और आती रहेंगी...
और न जाने कौन-कौन सी कसौटियों पर
अग्नि परीक्षा देती रहेंगी.....

क्या ये अभिलाषा भी सीता का ही रूप है ????????? अक्षय-मन

सोमवार, 1 जून 2009

लुत्फ-ए-शराब

मैंखाने में आज मैकशों की कोई कमी नही
ये आब-ए-हमदर्द पीकर देखूं तो कुछ हुआ

उसकी नशीली आंखें साकी जो बनी हैं आज
हर नज़र से मिले दो जाम,पीकर देखूं तो कुछ हुआ

आईने भी अब लड़खड़ाते हैं मुझे देख-देखकर
हर आईने से जाम टकरा पीकर देखूं तो कुछ हुआ

मेरे लबों को छुने से पहले हर बूंद वो पाकीजा होगी
मैं चूम-चूम हर पैमाना पीकर देखूं तो कुछ हुआ

टूटा हुआ पैमाना हर बार क्यूँ आता है मेरे नसीब में ?
धीरे-धीरे,छलके जाम जो पीकर देखूं तो कुछ हुआ ।
अक्षय-मन

शुक्रवार, 29 मई 2009

कुछ त्रिवेणियाँ


(१)
हर रात वो मोती जैसा चमकता है
जब-जब चांदनी उसके चहरे पर पड़ती है

बस अमावस की रात ही पता नही चलता की वो आज रोया है या नही ।

(२)
इन हवाओं के साथ तेरी खुशबू अब क्यूँ आती है
तेरा जिस्म मुझको अब क्यूँ महसूस होता है

शायद शमशान में तेरी राख अब भी बाकी है,हवाओं का रुख बदलना पड़ेगा ।

(३)
हमें आसमां में बादलों के घर दिखाई देते हैं
मैं हर दिन घर के नक्शे बदलते हुए देखता हूं

तेरी तरहां खुदा भी अपने ठिकाने रोज बदलता होगा ।

(४)
मोहब्बत न होती तो ये गीत,ये ग़ज़ल न होती
तुम शायर बने तो आशिकों के रहमों-करम पर

मगर मैंने कभी ये सोचा न था की मैं भी आशिक बन जाउंगा ।

(५)
निकाह जो करलो तुम अपनी मज़बूरी,अपने हालातों से
कोई गम नही उम्र भर ये रस्मे जो निभानी पड़ जायें

जब तुमको खुशी मिल जाए,फिर इनको तलाक़ दे देना तुम ।

(६)
बिस्तर पर सिलवटें ,कुछ जानी-पहचानी सी लगती हैं
जिनको देख कुछ पुरानी यादें जाग जाती हैं

शायद तभी हम रात-रातभर करवटें लिया करते हैं ।
अक्षय-मन

मंगलवार, 26 मई 2009

बस गरीब ये चाहत हुई


हमें शराब पीने की अज़ब ये अच्छी आदत हुई
हकीक़त को हकीक़त बोल बैठे ना जाने कौन-सी आफत हुई

आबाद हैं अभी हम,हमको तबाह ना समझो मगर हाँ ये सच है
बे नज़ीर इस विलायती मोहब्बत में बस गरीब ये चाहत हुई

कोई कायदा भी है कुछ उसूल भी, हम बड़े मासूम गुनाहगार भी
हमको मालूम नहीं जुल्म भी अपना,फिर सजा किस कसूर के बाबत हुई?

आज फिर करते हैं होंसलों की बातें वो, जो खुद ही किसी आग में जलते हैं
हमें किसी की जरुरत नहीं अकेले में इक सुकून मिला कुछ राहत हुई

कहीं दिलों में कुछ ख्वाब थे 'अक्षय' तो कहीं निगाहों में कुछ हकी़कत
हम आईने से लड़ा करते थे तक़दीर को लेकर न जाने कैसी हालत हुई ।
"अक्षय-मन "

शनिवार, 25 अप्रैल 2009

मैं कौन हूं ..


खामोश पड़ी उन आवाज़ों ने मुझसे पूछा मैं कौन हूं
तनहाइयाँ बटोरती उन दीवारों ने मुझसे पूछा मैं कौन हूं

बनती-बिगड़ती उन तकदीरों ने मुझसे पूछा मैं कौन हूं
बिलगते बचपन की कुछ तस्वीरों ने मुझसे पूछा मैं कौन हूं

भूख में हुए कुछ गुनाहों ने मुझसे पूछा मैं कौन हूं
मुझको भटकाती जाती कुछ राहों ने मुझसे पूछा मैं कौन

दुनिया के उठते सवालों ने मुझसे पूछा मैं कौन हूं
हवस के दहकते अंगारों ने मुझसे पूछा मैं कौन हूं

रातों को सजते बाज़ारों ने मुझसे पूछा मैं कौन हूं
फूलों से महके गजरों ने मुझसे पूछा मैं कौन हूं

प्रेम की असीमित पुकारों ने मुझसे पूछा मैं कौन हूं
प्रेमिका के मधुर स्वरों ने मुझसे पूछा मैं कौन हूं

पायल की उन झंकारों ने मुझसे पूछा मैं कौन हूं
वीणा के उन तारों ने मुझसे पूछा मैं कौन हूं

अधखिली कलियों बहारों ने मुझसे पूछा मैं कौन हूं
उन गुलज़ार नजारों ने मुझसे पूछा मैं कौन हूं

दरिया के दोनों किनारों ने मुझसे पूछा मैं कौन हूं
प्रक्रति के भिन्न-भिन्न श्रंगारों ने मुझसे पूछा मैं कौन हूं

पहलुओं में सिमटे सितारों ने मुझसे पूछा मैं कौन हूं
जुगनुओं से रोशन अंधकारों ने मुझसे पूछा मैं कौन हूं

उन शब्द ,उन विचारों ने मुझसे पूछा मैं कौन हूं
उन कवियों, उन पत्रकारों ने मुझसे पूछा मैं कौन हूं

उन मंदिरों,उन गुरुद्वारों ने मुझसे पूछा मैं कौन हूं
उन मज्जिदों,उन उन मजारों ने मुझसे पूछा मैं कौन हूं

हिंसा,आतंक और अत्याचारों ने मुझसे पूछा मैं कौन हूं
नेता,अभिनेता और समाचारों ने मुझसे पूछा मैं कौन हूं


"सवालों की चलती बरछी-कटारों ने मुझसे पूछा मैं कौन हूं "
"कई सरगना गिरोह के सरदारों ने मुझसे पूछा मैं कौन हूं ":)
अक्षय-मन

शनिवार, 7 फ़रवरी 2009

दर्द का मौसम अभी आया नहीं



आँखे हैं बंजर दर्द का
मौसम अभी आया नहीं
यादों के खुले आसमान पर
बादल अभी मंडराया नहीं
आँखे हैं बंजर दर्द का
मौसम अभी आया नहीं

बहुत अजीब सा लगता है
सच ना जाने क्यूँ छुपता है
मैं अकेला हूं आज इसलिए
मैंने कभी कुछ छुपाया नहीं
आँखे हैं बंजर दर्द का
मौसम अभी आया नहीं


दोस्त कभी दो बनाये थे
वो भी हाँ शायद पराये थे
वक़्त ऐसी चाल चल गया
मैं कुछ समझ पाया नहीं
आँखे हैं बंजर दर्द का
मौसम अभी आया नहीं


कुछ पहेलियों में आज मेरी
पहेली भी शामिल होगी
रिश्तों की डोर क्यूँ है उलझी
क्यूँ इसे किसी ने सुलझाया नहीं
आंखें हैं बंजर दर्द का
मौसम अभी आया नहीं

किसी का मैं कुछ हूं
कुछ रिश्तों से बंधा हूं
कुछ रिश्तों के मायने
मैं समझ कभी पाया नहीं
आंखें हैं बंजर दर्द का
मौसम अभी आया नहीं

शब्दों की शाख पर देखो
अरमानों का परिंदा बैठा है
बहुत चाह थी उड़ने की मगर
किसी ने उसे उड़ाया नहीं
आंखें हैं बंजर दर्द का
मौसम अभी आया नहीं

अक्षय-मन

सोमवार, 26 जनवरी 2009

समंदर!!!


ये मेरा दिल है समंदर देखो
ये भी रोता है छूकर देखो !

पत्थरों से दोस्ती की सजा
लहरों से तुम पूछकर देखो !

तन्हाईयां फेली हैं मीलों तक
दो पल तुम ठहरकर देखो !

होसलों पर गर अपने हो यकीन
समंदर पर तुम चलकर देखो !

गहराईयों की तासीर गर मालूम न हो
मेरे दिल में तुम उतरकर देखो !

अक्षय-मन


रविवार, 18 जनवरी 2009

क्या खोकर वापस आ जाते हैं ???

कभी-कभी बिन बरसे बादल जाते हैं
एक आँख में आंसू कम आ जाते हैं

जवाब
मांगता है तू जब भी मेरे अश्को का
मेरे दर्द तुझको,कम क्यूँ नज़र आ जाते हैं ?

बचपन मुझसे खेल गया कुछ ऐसे खेल
तमाशा तक़दीर का देखने लोग आ जाते हैं

तस्वीरों में ढूंढ़ता हूं ख़ुद की तस्वीर को
हर तस्वीर में वो नज़र आ जाते हैं

शिव का रूप देखा जिसमे वो शिवांगी बन गया
प्रार्थना-पूजा,वंदना-दुआ वो सबमे आ जाते हैं

अनमोल हूं कीमती हूं कुछ ऐसा-वैसा कहा था तुमने
खो दिया फिर क्यूँ तुमने क्या खोकर वापस आ जाते हैं ??
क्या खोकर वापस आ जाते हैं ???

अक्षय-मन

शुक्रवार, 16 जनवरी 2009

मैं भी नही जानता तू भी नही जानता

फासले हैं इतने कि उसे देखा नही कभी,एहसासों के दरमियाँ
बीच की दूरी को,मैं भी नही जानता तू भी नही जानता

मुझे तो जीना है,जीने की आदत जो है पुरानी
मौत से पहली मुलाकात कैसी होगी,
मैं भी नही जानता तू भी नही जानता

रोजाना आते हैं मेरी छत पर,वो प्यास बुझाते बादल
कितनी प्यास बुझी है,कितनी प्यास लगी है
मैं भी नही जानता तू भी नही जानता

किताब-ए-कातिब में पन्नो का हिसाब तो है,प्यार का नही
किन-किन लम्हों में,प्यार का हिसाब लिख बैठे
मैं भी नही जानता तू भी नही जानता
कातिब=लेखक

अक्षय-मन

शनिवार, 10 जनवरी 2009

ग़ज़ल को तो पूरा प्यार मिला गज़लकार को भी थोड़ा प्यार दें

इंतज़ार का एक लम्हा भी उन्हें साल लगता है
उनके लिए हम सदियाँ भी एक लम्हे मे गुजार दें

फिजाओं को खबर थी तो तेरी हम बेखबर हैं तो क्या
आओ इन हवाओं से ही सही तेरी जुल्फ आज संवार दें

ये ज़मीं,ये आसमां दिखते हैं किसी जन्नत से कम क्या ?
जिगर देख मेरा आज तोहफे मे तुझे ज़हान-ए-बहार दें

जुस्तजू तेरी है तेरे ही जहान में और मैं पगला तुझे ढूंढ़ता
फिरा मिला तू मुझमे ही बनके मेरा खुदा दुआए शुमार दें

शहर की इन गलियों मे तुझे देख मेरे कदम क्यूँ बहक जाते हैं?
तू कोई ऐसी दवा दे मुझको जो तेरी निगाहों का खुमार उतार दें
(खुमार = नशा)
कभी
आती है उनकी याद तो तस्वीर न देखा कर आखें बंद कर
नाम ले उनका फिर देख रूह भी उनकी तुझे शौक से दीदार दें

कुछ शब्द,कुछ अल्फाज़ कहीं दिलों की बात"अक्षय"तो कहीं भड़ास
ग़ज़ल को तो पूरा प्यार मिला,गज़लकार को भी थोड़ा प्यार दें :) :)
अक्षय-मन

गुरुवार, 8 जनवरी 2009

हर अश्क में है अक्स तेरा


मैं शक करता रहा खुद के ही ऐतबार पर
मुझसे जुदा मेरा यकीं होंसला कोई मिला नहीं

वो हया भी शर्मसार हो गई आईने में देखकर
पर्दा भी तुने उससे किया जिससे कोई गिला नहीं

नाउम्मीद में उम्मीद की तू ही तो एक वजह थी
मैंने जो ख्वाब बोया था,हकीक़त में कोई खिला नहीं

हर अश्क में है अक्स तेरा इन्हें कैसे मैं जुदा करूँ
ये है मेरी निगार-ए-जां,रुकता कोई सिलसिला नहीं

मिलते हैं हमसे अब कहाँ बीते हुए वो कुछ मंजर
ठहरी हुई तन्हाई से क्यूँ गुजरा कोई काफिला नहीं

मेरी खबर ये लब्ज़ मेरे देते रहेंगे हाँ तुझे
तेरा ही कुछ पता नहीं तेरी ही कोई इत्तिला नहीं
अक्षय -मनं

शनिवार, 3 जनवरी 2009

प्रकृति की गोद में पलता हुआ पत्ता


बड़ती हुई दरख्त का सुखा हुआ पत्ता
आधियों की फुँकार से उड़ता हुआ पत्ता

जाने कहाँ वो जाएगा ये हवाओं का रुख बताएगा
कौन-सी राहों को ढूंढ़ता,भटकता हुआ पत्ता

काटों की चुभन,फूलों की सुगंध बस शाख पर
है सूनापन उससे फिरसे बिछड़ता हुआ पत्ता

उड़ते कब तक न थकेंगे एक डाल बैठेंगे परिंदे
उन्हें सूरज की धुप में छाव देता तपता हुआ पत्ता

मेरा सर्दियों की धुप में बदन को सेकना
यहाँ हर मौसम की मार सहता हुआ पत्ता

नशा बहुत है इन घटाओं मे शायद किसी
मधुबन की तलाश में डोलता हुआ पत्ता

सनसनाहट हुई है हवाओं में कुछ
बहारों के गीत गुनगुनाता हुआ पत्ता

कोई क्या जाने इस पत्ते की कीमत
सासों को सासों से सीता हुआ पत्ता

जब किनारों को किसी की तलाश न हो
नदियों को पुकारता आकाश न हो
तब-तब लहरों के संग लहरता बहता हुआ पत्ता

कोई रिश्ता,नाता सिर्फ़ खून से ही नही पनपता
देखो यहाँ प्रकृति की गोद में पलता हुआ पत्ता
अक्षय-मन

गुरुवार, 1 जनवरी 2009

प्यार है जितना दर्द भी उतना सच बोलूंगा अदालत से

झील में उतरा चाँद कब डरता है लहरों की हरारत से
लहरों से वो कहता है मुझे छेडो मगर नजाकत से

एक पाक़ कलमा आया है आज तेरे इन होठों पर जो
मिलता-जुलता है गीता के श्लोक,कुरान की आयत से

दिलों की खामोशियाँ जिनपर दस्तक देती ये नजरें बेजुबां
कुछ तुम कहो कुछ हम कहें ,बातें शुरू करो शिकायत से

दर्द
में ओढे रखा सिसकियों से बुना गर्माहट का लिबास
सितम ढाती सर्द हवाए रुकें कैसे मजबूर हैं अपनी आदत से

रेतीले टीलों पर बसाये हमने सपनो के कुछ अटूट घरोंदे
वो टूटते नही तुफानो से जो बने हैं खुदा की इनायत से

खंडहर भी तो बन जाते आसरा किसी बेघर के गुजारे का वो
अफ़सोस नही करते क्यूंकि उनकी औकात बड़ी है इमारत से

मरते-मारते हैं एक दुसरे को ,समझ नही आता क्यूँ
दिलों में चितायें जलती है बस, बेगुनाहों की शहादत से

हकीक़त से ख़ुद को छुपाले ऐसी शक्ल किसी की बनी नही
निगाहों पर नकाब पहने हैं जो वही इन्साफ करें शराफत से

गवाह है "अक्षय" कटघरे में खड़ी बेगुन्हा मोहब्बत का
प्यार है जितना दर्द भी उतना सच बोलूंगा अदालत से
अक्षय-मन