बुधवार, 2 जुलाई 2008

सच यही कोई संतुष्ट नहीं


उस पतंगे को मिला क्या दीये से प्रीत करके
वो तो अंधेरो से डरकर रौशनी
कि तरफ जा रहा था
क्या मिला उसको रोशनियों में जलके
क्या मिला उसको अंधेरो से भाग के
अपने आपको मिटा दिया
रौशनी कि चाह में
और पूछने वाला कोई नहीं
जो है उससे संतुष्टि नहीं मिल पाती ना
उस पतंगे कि तरहां भी बहुत
कुछ पाना चाहता है आदमी
शायद किसी को मिल भी जाता है
और कोई बिना कुछ पाए ही
जिंदगी की धुप से झुलस जाता है
हर रात एक इन्सान मरता है
उस पतंगे की ही तरहां
बस अंतर इतना है पतंगा
दीये की ज्योत से और
इन्सान जिंदगी की धुप से
पतंगा रौशनी की चाह में
और ये इच्छाओं की चाह में
अपना दम तोड़ देता है
संतुष्ट नहीं ना किसी को
अपने दायरे में रहना पसंद नहीं
अपनी इच्छापूर्ति के लिए सब
रावण रूप ले चुके हैं
अरे! अब इस कलयुग में
सीता माता कहाँ से लाउँ
जो एक ब्राह्मण को संतुष्ट
करने के लिए लक्ष्मण-रेखा
उलांघ गई थी!

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