मंगलवार, 8 जुलाई 2008

मुक्तक



१.
वक़्त ने जो करवट ली है जिंदगी के मोड़ो पर
हमने खुद अपनी पीठ रगड़ी है बेजान पड़े इन कोड़ो पर
उनसे कुछ कहे ना पाए जानकर भी अनजान खड़े रहे हम
वो तो अपने ही थे जो नमक छिड़कते रहे जख्मी पड़े उन फोड़ो पर !!
२.
बेइन्तहा दर्द को भी हमने उनका प्यार समझा
आंसू हुए जो आने को हम रो ना पाए हमने
अपनी आँखों को उनकी आँखे समझा
ढूंढ़ रहे थे ना जाने कौन से बीते लम्हों को हम
मुडकर देखा हंसी के पर्दे से ढक रखा था गमो को
अपनी आबरू समझा !!

३.
उस बुझते दीये को तुने हाथ जो दिखाया होता
मुझे मेरे अंधेरो से काश तुने बचाया होता
अब मैं मर चूका बुझ चूका उस दीये के जैसा
काश तुने मुझे उस दीये कि तरहां जलाया होता !!
४.
आज अपनी जिंदगी कि आखरी साँसे गिन रहा हूं
खामोशी,तन्हाई,गुमनामी सब तो साथ हैं मैं अकेला कहाँ हूं
लेकिन बेबस हूं क्या करूं कुछ समझ नहीं आता
कफ़न तो है पर डालने वाला कोई नहीं इसलिए
मौत से पहले खुद ही को कफ़न से ढक रहा हूं !!

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