बुधवार, 1 जुलाई 2009

ये वक़्त


कितने लोगों में अकेला नज़र आता है ये वक़्त
तनहा कितनी जिंदगियाँ जी जाता है ये वक़्त

जब हों पैरों में पत्थर,तो हाथ नही बढते
ठोकर लगे तो उठना सिखाता है ये वक़्त

प्यार-मोहब्बत में मजहब,उम्र और जात की बातें
दुआ मिलकर करोगे तुम,तो हाथ उठाता है ये वक़्त

किसी ने मेरा बचपन तो किसी ने जवानी न सुनी
सुन सको तो सुनलों हर लम्हा सुनाता है ये वक्त

लब्जों को मिल जाती है जब ख्यालों की उड़ान
सफहों सा रंगा आसमां,पंख फैलाता है ये वक़्त

"अक्षय" तेरे होंसलों को देख छुप-छुपकर
आईने में ख़ुद को निहारता है ये वक़्त

(इस तस्वीर को देख कुछ और शब्द दिल में आते हैं)

हाथों की लकीरों पर वक़्त ने कुछ सितारे लिखें हैं
काले बादलों की रात में भी जगमगाता है ये वक़्त

अक्षय-मन