रविवार, 28 जून 2009

बूंदों की सौगात

मौसम को देखते कुछ उसका रूप शब्दों से निखारा है
हमने देखें हैं कई रंग तुम्हारे मगर ये रंग हमारा है


बरसों मेघा,बरसों मेघा
आज धरा ये प्यासी है
नील-गगन में,नील-गगन में
क्यूँ छाई गहरी उदासी है ।

झोंका पवन का आने से
पत्ता कोई शर्माता है
प्यार बरसा कर इस धरा पर
देख गगन मुस्काता है ।

भीगा फिरसे आज वो बचपन
यादों की इस बारिश में
बरसों बाद ख़ुद से मिला हूं
सावन भी है इस साजिश में ।

नीचे लिखीं कुछ पंक्तियाँ मेरे पापा के लिए जो न होकर भी मेरे साथ हैं
कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में...

नयन मेरे नम पड़े हैं
पहली इस बरसात में
हमसे दूर गए,वो बिछडे मिले हैं
बूंदों की सौगात में ।

अक्षय
-मन

बुधवार, 24 जून 2009

तुमने अपनी कला से.....

पत्थरों में भी जान होती है ये मैंने तुमसे जाना है
इस पत्थर को जीवित कर दिया तुमने अपनी कला से...

रंगों में भी पहचान होती है ये मैंने तुमसे जाना है
इन रंगों को नया नाम दिया तुमने अपनी कला से....

हाथों में भी दुआ होती हैं ये मैंने तुमसे जाना है
इन हाथों से संसार संवार दिया तुमने अपनी कला से....

मौन चित्रों में आवाज होती है ये मैंने तुमने जाना है
इन चित्रों को एक सुर दिया तुमने अपनी कला से...
अक्षय-मन

शनिवार, 20 जून 2009

एक लेखक को मेरा पत्र "तुम क्या लिखते हो ?"

मेरे शब्दों ने मुझे नई पहचान दी या मेरे दर्द ने कहना जरा मुश्किल है लेकिन तुम कहो मैं तुमसे पूछना चाहता हूं तुम्हारा दर्द कितना गहरा है कितनी गहराई में डूबे हैं तुम्हारे शब्द,अपने ही शब्द इन कोरे पन्नो पर भरते हुए क्या तुम तन्हा होते हो?क्या उसी तन्हाई में तुम्हारी आत्मा जीवित होती है जो जानती है सच्चाई को,सच्चाई जीवन की, सच्चाई मृत्यु की,सच्चाई सुख,सच्चाई दुःख की, "बिना दर्द के कलम नही उठती होगी तुम्हारी बहुत भारी जो है सच्चाई में बहुत बजन होता है दर्द का कहीं ना कहीं हाथ थामना पड़ता होगा"अपने पीड़ित मन को कहाँ ले जाते हो तुम समझाने के लिए क्या उन पन्नो के पीछे हाँ उन पन्नो के ही पीछे शायद जहाँ तुम अपने दर्द अपने जज्बातों को बिखेर देते हो शब्दों के रूप में.....
तो मैं तुमसे पूछता हूं
तुम क्या लिखते हो ?
किसी बच्चे,किसी अनाथ का रोना या
किसी गरीब का भूखे पेट आलापना
तो मैं तुमसे पूछता हूं
तुम क्या लिखते हो ?
किसी विधवा की कुछ पुरानी यादें या
किसी तलाकशुदा की अकेली काली रातें
तो मैं तुमसे पूछता हूं
तुम क्या लिखते हो ?
किसी की आंखों का वो सुना-सुना इंतज़ार या
किसी के झूठे वादे,ठुकराया हुआ प्यार
तो मैं तुमसे पूछता हूं
तुम क्या लिखते हो ?
किसी नई-नवेली दुल्हन की टूटती चूड़ीयाँ या
रिश्तों के बंधन में बंधी मज़बूरी की बेड़ियाँ
तो मैं तुमसे पूछता हूं
तुम क्या लिखते हो ?
देश की मज़बूरी,नेताओं का अत्याचार या
किसी शहीद का बलिदान उसका रोता परिवार
तो मैं तुमसे पूछता हूं
तुम क्या लिखते हो ?
किसी अबला पर उठी निगाहें उसका बलात्कार या
बम फटने की कहानी वो आतंकवाद वो नरसंघार
तो मैं तुमसे पूछता हूं
तुम क्या लिखते हो ?
माँ-बाप के आंसूं बेटी की विदाई या
बेटों की डांट माँ-बाप की पिटाई
तो मैं तुमसे पूछता हूं
तुम क्या लिखते हो ?
तुम क्यूँ लिखते हो ?
ये दर्द तुम्हारा नही फिर भी
इस अजनबी दर्द को कैसे जी लेते हो ?

यदि मैं भी इस दर्द को जीने लग जाउं
तो तुम,तुम ना रहो और मैं,मैं ना रहूं ?
शायद मेरे सवालों का यही जवाब है..........अक्षय-मन

सोमवार, 15 जून 2009

बेपनाह रिश्ते और बुरे वक्त की एक खास बात....


मेरे इस दिल में तुम्हारा कुछ समान पड़ा है
कुछ यादें,कुछ जज़्बात और टूटे-फूटे से कुछ
एहसास...जिनपर बेदर्द इस वक्त की गर्द जमी पड़ी है
अब मैं चाहता हूं ये गर्द,ये यादें हमेशा के लिए इस बेरूह जिस्म के साथ
अपना दम तोड़ दें फ़ना हो जायें और तुम एक रात का अधूरा ख्वाब बनकर इन अंधेरों में हमेशा के लिए खो जाओ......
मैं जानता हूं वक्त मेरे लिए कभी नही बदलेगा और न तुम...मैं ही बदल जाउंगा अब तुम्हारे लिए,इस वक्त इस ज़माने के लिए ...
कसूर न मैं अपना मानता हूं न तुम और माने भी क्यूँ...
क्यूंकि हम एक दुसरे की दुःख तकलीफ तो समझते हैं
लेकिन जिस ज़िन्दगी में ये दुःख तकलीफ हैं
वो ज़िन्दगी ही नही समझ पा रहे हैं...
कुछ मजबूरियां हैं तुम्हारी जो मुझे कई बन्धनों में बाँध देती हैं
और ये बंधन भी कैसे जिनका कोई नाम कोई पहचान नही...
जानती हो हमारा रिश्ता अनाथ हो गया ये लावारिस और
बेपनाह हो गया...जो गुजरे वक्त के साथ न जाने कौन सी
गुमनामियों में खो गया....

मगर एक बात है जो मुझे अब भी सुकून देती है कुछ होंसला देती है वो
ये कि बुरे वक्त में भी एक खास बात होती है कि वो भी गुज़र जाता है.....अक्षय-मन

गुरुवार, 11 जून 2009

कुछ बातें अनकही अंतर्मन की

अंतर्मन के भावों से
ह्रदय-अमुक परिभाषित होगा
अग्न लगाते शब्दों का
अर्थ कोई अभिशापित होगा ।

जीवन-मृत्यु की पहेलियाँ
सुख-दुःख के भ्रम को सुलझाती है
काटों में जैसे अधखिली कलियाँ
खिल-खिलकर मुरझाती हैं ।

ह्रदय
मेरा निस्पंद हुआ है
अटकी सांसें प्राणों में
क्या हैं वो सब सत्य गाथायें ?
जो लिखी गीता-पुराणों में ।

नीर तेरे गंगा-जमुना
जिसकी हर बूंद पावन है
प्यासा मन आज भीगा है
नयनो से बरसा सावन है ।

समय की रेत मुठ्ठी से निकले
जीवन तुम बढ़ जाने दो
दुःख के पल-चिह्न जो ठहरे है
अश्रुओं संग बह जाने दो ।
अक्षय-मन

बुधवार, 10 जून 2009

ऐ गुस्से,नखरे वाली सुनो.....

जिस वक्त तुम इस आईने में ख़ुद को देखा करती हो
उस वक्त तुम मुझसे कम ख़ुद से ज्यादा मोहब्बत करती हो :)

अरे ! रहम करो,मेहरबानी करो,गुनाह हमारा है तो हमसे कहो
हम बन्दे हैं खुदा के और तुम खुदा से ही शिकायत करती हो

हकीक़त में तो हमने तुम्हे भुला दिया है बरसो-सालों से
मगर ख्वाबों में -आकर तुम फिर से शरारत करती हो

ऐ गुस्से,नखरे वाली सुनो,दिलसे ज़रा तुम काम तो लो
हम अनजाने चुप से बैठे हैं,देखें कितनी नफरत करती हो :)
अक्षय-मन

रविवार, 7 जून 2009

कलयुग की सीता

वहां देखो वो खड़ी अभिलाषा है,जिंदगी ने
धिक्कारा उसे परन्तु जीने की आशा है
नारी है लाचारी है,पहने फटी-पुरानी साड़ी है
अपना तन न ढक कर अपना बच्चा,
अपना आँचल संभाली है.......
दुखों के सागर में
सुखों का किनारा नही
डूबती है हर पल
उसे तिनके का सहारा नही...
इसके पश्चात् भी उसके नयनों में
कोई क्रोध,कोई प्रतिशोध नज़र नही आता
भूखी है,अध्नंगी है हर कोई उसे देखता जाता
बच्चा बिलखता,वो रोता जब बूंद-बूंद छाती से
दूध पानी बन निकलता.....
उसपर ये समाज कहता....
ये वक्त-वक्त की बात है.....
किसी ने दो शब्द कहे थोड़ा अफ़सोस किया
और वहां से अपने रास्ते चल दिया....
तुम्हारे पास वक्त नही....
और कहते हो वक्त-2 की बात है ....
वाह रे ! दुनिया क्या यही वक्त की परिभाषा है?????
नहीं- नहीं ये तो स्त्री है वक़्त के हाथों की कठपुतली है...
वक़्त को ये नहीं वक़्त इसे बदलता है
क्यूंकि हर पुरुष इसे अपने से कमजोर समझता है
कमजोर है क्यूंकि रीति-रिवाजों के बन्धनों में बंधी है....
क्या यही इस समाज का खोखला,अधूरा ढांचा है.....?
क्या यही वक़्त की परिभाषा,अधूरी अभिलाषा है.... ?
ये वक्त आज है यही वक्त कल भी था...
जब कोई सीता कुछ न कर पाई थी
क्यूंकि वो एक स्त्री थी...
यहाँ इस समाज में तब से अब तक न जाने कितनी सीता
जन्म लेकर आई होंगी और आती रहेंगी...
और न जाने कौन-कौन सी कसौटियों पर
अग्नि परीक्षा देती रहेंगी.....

क्या ये अभिलाषा भी सीता का ही रूप है ????????? अक्षय-मन

सोमवार, 1 जून 2009

लुत्फ-ए-शराब

मैंखाने में आज मैकशों की कोई कमी नही
ये आब-ए-हमदर्द पीकर देखूं तो कुछ हुआ

उसकी नशीली आंखें साकी जो बनी हैं आज
हर नज़र से मिले दो जाम,पीकर देखूं तो कुछ हुआ

आईने भी अब लड़खड़ाते हैं मुझे देख-देखकर
हर आईने से जाम टकरा पीकर देखूं तो कुछ हुआ

मेरे लबों को छुने से पहले हर बूंद वो पाकीजा होगी
मैं चूम-चूम हर पैमाना पीकर देखूं तो कुछ हुआ

टूटा हुआ पैमाना हर बार क्यूँ आता है मेरे नसीब में ?
धीरे-धीरे,छलके जाम जो पीकर देखूं तो कुछ हुआ ।
अक्षय-मन