बुधवार, 24 दिसंबर 2008

भला ईश्वर कैसे जी जाते हैं ??


ज़िन्दगी देखी है हमने तुममे कहीं पनपती हुई पर
यहाँ तो बहुत से लोग मौत की चाहत में जी जाते हैं

प्यार को देखा है हमने दर्द के दामन में सर छुपाते हुए यहाँ
भटकते तो हम हैं सिर्फ़ इक आसरे की आरजू मे जी जाते हैं

धुप-छाँव का खेल है ज़िन्दगी, आती भी है तो कभी जाती भी
आना-जाना लगा रहेगा देखें हम भी कितने जन्म जी जाते हैं

कभी उन धडकनों को रुसवा ना करो जो दिल के दरवाजों पर
दस्तक देती है हम उन धडकनों की पनाह मे ताउम्र जी जाते हैं

"अक्षय" को तुम आज इतनी दुआ देदो की वो भी पत्थर बन जाए
देखना चाहता हूं पत्थर बनकर ,भला ईश्वर कैसे जी जाते हैं ??
भला ईश्वर कैसे जी जाते हैं ??
अक्षय-मन

सोमवार, 15 दिसंबर 2008

इतना प्यार ना दे कि......


इतना प्यार ना दे कि बह जाउं आज-कल अश्को का बहाव कुछ ज्यादा है
सुना है आते-जाते तुफानो से यहाँ पर कोई सहारा,कोई कश्ती नही मिलती है

इतना प्यार ना दे कि खामोशी मेरे खुलते अधरों को चूम ले
सुना है उन फासलों से तू मेरी तनहाई से हु-ब-हु मिलती है

इतना प्यार ना दे कि हर दर्द अश्को के जैसे पी जाउं
सुना है गुजरे वक्त से दर्द कि दवा भी अश्को में छिपी मिलती है

इतना प्यार ना दे कि आईना भी मुझसे रूठने लगे
सुना है उसकी तनहाई से प्यार क्यूँ सिर्फ़ तुझको मिला
शक्लें तो दोनों की एक-दुसरे से मिलती हैं

"अक्षय" को इतना प्यार ना दे कि समय से पहले बिछड़ जाए
सुना है खुदा से कि प्यार पाने वालों को धड़कने कम मिलती हैं :)
अक्षय-मन

शनिवार, 13 दिसंबर 2008

इश्क में बदले मौसम का मैं पहला-पहला झोका हूं ।

साथ गुजारे वक्त का मैं भुला-बिसरा लम्हा हूं
तेरी निगाहों में हूं खटका,मैं वो ऐसा तिनका हूं
इश्क में बदले मौसम का मैं पहला-पहला झोका हूं ।

बीती बातों की अन्जुमन में,मैं चुप-चुपसा तन्हा बैठा हूं
उनका रोना भी मैं रोया,अब बिन अश्क सिर्फ़ गरजता हूं
इश्क में बदले मौसम का मैं पहला-पहला झोका हूं

कैसे हैं वो चाहने वाले जिन्हें ये भी ख़बर नही मुर्दा हूं के जिन्दा हूं
वो कहते थे मैं बोझ हूं उनपर लेकिन मैं तो बहुत ही हल्का हूं :) :)
इश्क में बदले मौसम का मैं पहला-पहला झोका हूं

आहटों में किसी और की मैं तेरे क़दमों को गिनता रहता हूं
चढ़ता है नशा जब तन्हाई का तब मैं तुझको लिखता रहता हूं
इश्क में बदले मौसम का मैं पहला-पहला झोका हूं

"अक्षय" को भूलना मुश्किल है पर उनके होठों पर
आया मैं भुला-भटका किस्सा हूं
मैं तेरी गुलाब जैसी जवानी पर दाग नही
तेरी डाली से हूं टूटा मैं वो ऐसा सूखा पत्ता हूं
इश्क में बदले मौसम का मैं पहला-पहला झोका हूं
अक्षय-मन

शुक्रवार, 12 दिसंबर 2008

बड़ा वाला पागल.....


मजबूर हुआ हूं आज फिर दर्द की दुश्मन ये कलम उठी
दस्तक दी है दर्द ने,कोरे-कागजों की खामोशियों पर कोई

किसी से चुराया था मैंने जो गम वो मुझे किस रस्ते ले आया
मुझे चोर समझ अब ये कलम वो गम मुझमे तलाश करती है
तारीख नही,सुनवाई नही गुनाह के उस वक्त की उस लम्हे उस दर्द
की वो सीधे ही उम्रभर के लिए मुझे कागजों में कैद करती है

गुनाह किया मैंने जो तेरा गम चुरा लिया सजा भी मिली मुझे
शब्दों का बंदी आज मैं हूं लोगो ने मुझे शायर नाम दिया
और तुने आवारा, दीवाना,बड़ा वाला पागल बना दिया !!!
***
यार तुम दुखों को क्यूँ गिनते हो अपनी इन उँगलियों पर
कभी इन खामोश लबों की सुर्खियाँ भी गिन लिया करो !
***

शनिवार, 29 नवंबर 2008

एक दर्पण,दो पहलू और ना जाने कितने नजरिये /एक सिपाही और एक अमर शहीद का दर्पण

ये आवाज है एक सिपाही और एक शहीद की....
एक सिपाही शहीद होने से पहले तुमसे ये कहना चाहता है -
*****
जख्मी हूं क्यूंकि मैं भी तेरे जैसा जिस्म और नाम रखता हूं
ईमान कि बात मत करो,मैं देश के लिए अपनी जान रखता हूं
माँ का आँचल,बहन का प्यार रखता हूं ,किसी कि नज़रों का
वो सुना-सुना इंतज़ार रखता हूं

अब बोलो तुम ज़रा क्या यही खता है मेरी आज
तेरे लिए सब छोड़ आया,अब दिल में छुपाकर अपना छोटा सा
परिवार रखता हूं
तुझसे मिले ना मिले वो प्यार ,दिल में नही कोई सवाल रखता हूं
मैं तेरा ख़्याल रखता हूं बस यही एक अधिकार रखता हूं

मैं किन-किन की नज़रों में व्यापार करता हूं ?
तो सुनिए हाँ ये सच है कि मैं व्यापार करता हूं
तेरे लिए, देश के लिए अपनी खुशियों ,अपने सपनो का
बहिष्कार करता हूं
और तेरी हिफाज़त के लिए एक बन्दूक,एक खंज़र,
एक तलवार रखता हूं
ये सच है मैं जानता हूं कि तुम मेरी कीमत नही जानोगे फिर भी
तेरे कदमो में अपनी माँ से मिला वो आशीर्वाद,वो प्यार रखता हूं
मैं बस यही व्यापार करता हूं,दिल मैं नही कोई सवाल रखता हूँ
हाँ तेरी हिफाज़त के लिए एक बन्दूक,एक खंज़र,
एक तलवार रखता हूं

->अब वो शहीद कहता है पूरे अभिमान से पूरे सम्मान से पर अब तुमसे नही ख़ुद से कहता है और ख़ुद पर गर्व करता की मैंने देश के लिए कुछ किया है मेरा जीवन व्यर्थ नही गया है :-
****

शोला हूं,आतिश हूं,दिल हूं धड़कन भी हूं
देश मेरे तू,मुझे याद रखना इस माटी के कण-कण में मैं हूं

नाम दिया धरती माँ ने मुझको देश है मेरा मजहब
गीत,ग़ज़ल,दोस्तों की कुछ बातें और माँ कि लोरी हैं ये सिर्फ़ यादें
मैं देश के लिए समर्पित हूं यही वचन,यही हकीक़त
देश का दर्पण मैं हूं

बूंद-बूंद खून की मिली है माटी में जब-जब
धरती माँ से जन्मा हूं वीर सैनिक जवान मैं हूं
तेरी शान,तेरा अभिमान ,तेरा सम्मान मैं हूं
तेरे लिए जो खून का कतरा-कतरा समर्पित है
वो समर्पण मैं हूं

अक्षय,अमर,अमिट है मेरा अस्तित्व वो शहीद मैं हूं
मेरा जीवित कोई अस्तित्व नही पर तेरा जीवन मैं हूं
पर तेरा जीवन मैं हूं

मैं अनुराग मैं प्रयाग और मैं ही सुरों का राग हूं मैं एक नई सुबह का अवतार हूं
मैं रंग मैं रत्न और मैं ही रोनक हूं इस नई सुबह में रवि कि लालिमा मैं हूं
मैं ज्योति मैं ज्वाला मैं जोश का जुटाव हूं रमणीक रश्मि से पिरोई जय-माला मैं हूं
मैं संताप मैं सुरभि और मैं ही सुरों का संगम हूं इस सृष्टि का सर्जन(जन्मदाता) मैं हूं
मैं सुबह मैं रश्मि मैं रवि मैं सृष्टि मैं जीवन का सार हूं और हूं सर्वोदय भी समापन भी
मैं हूं मैं ही समय का संचार हूं
-
अक्षय-मन
ये चंद पंक्तियाँ उन शहीदों के नाम....और इसके साथ-साथ उन्हें नतमस्तक हो आदरपूर्वक पूरी आस्था के साथ श्रद्धांजलि देता हूं

->और फिर उठता है ये सवाल आतंकवाद से कैसे निपटा जाए ???

ये मेरा मानना है मेरा नजरिया है आतंकवाद से तब ही निपटा जा सकता है जब आम नागरिक को होंसला नही, उसे होंसला उसे विश्वास देने की जरूरत है जो आतंवादी से लड़ता है उसका सामना करता है हम उस सिपाही को होंसला दे सकते हैं और "ये आराईश का काम "पूजनिये शमा जी" बखूबी से अंजाम दे रही हैं घर-घर जाकर होंसला अफ़जाई कर रही हैं वो भी बिल्कुल अकेले घर से बहुत दूर अपनी परवाह न करते हुए देश की परवाह कर रही हैं उनकी आवाज किस-किसने सुनी और कौन-कौन है उनके साथ ? जो ख़ुद मुंबई मे रहते होंगे वो भी नही गए होंगे उन बेसहारों से मिलने,फिलहाल अभी मदद की बात नही करता..वो अभी सरकार पर ही छोड़ दीजिये किस-किस के साथ कितना न्याय करती है ...
श माँ जी आपको शत्-शत् नमन चरण-स्पर्श....
आपके लिए कुछ पंक्तियाँ रखना चाहूंगा.... बहुत कम है लेकिन....
अपने हों कम उसके लाखों हों दुश्मन जिसके
समय से हार न माने वो चलती रहे पूरी लगन से जो
तेज-दीप्ति दर्पण हो हर नारी का,रूप हो जिसका आदर्शता
वो कहलाएगी अपराजिता,अपराजिता.. आपके ही जैसे..
आपका बच्चा


हम
तो सिर्फ़ बातें, विचार बाँट सकते हैं और साथ ही साथ होंसला भी दे सकते हैं हथियार हर कोई चला नही सकता परिवार होता है घर-बार बच्चे होते हैं, माँ होती है, बहन होती हैं, पत्नी होती है उनकी रक्षा भी तो अपना ही कर्तव्य है तो pls उनको सिर्फ़ और सिर्फ़ होंसला दीजिये जो देश के लिए जंग लड़ते हैं.....क्या हम इतना नही कर सकते ?इतना तो कर ही सकते हैं..है ना? कुछ नही तो हम अपनी तरफ़ से मन्दिर बनाते हैं ,मज्जिद बनाते हैं नेताओं को बुलाते हैं बड़े-बड़े फंक्शन में बहुत कुछ करते हैं अपने लिए बहुत पैसा गंवाते हैं ,अब क्या-क्या कहूं इस समय मीडिया को बीच में नही लाना चाहता :) कभी ध्यान से सोचना आप जो एक सैनिक के लिए करते हैं तो क्या आप वो अपने लिए नही करते ?अरे ! देखिये उसमे आपका ही स्वार्थ है स्वार्थ तो................है न ? एक रक्षक जो आपको,आपके घर आतंक की नज़र से बचा रहा है उसके लिए कोई कुछ नही करता कैसा प्रचलन हो गया अपना है ना ? इस नज़रिए से सोच कर देखिये यही बिनती है आपसे...
और हाँ एक महत्वपूर्ण बात तो बताना भूल ही गया की सिपाही का कोई मजहब नही होता वो एक साथ हाथ से हाथ मिला देश के लिए और आपके लिए उस आतंकवादी उस दुश्मन का सामना करते हैं बिना किसी स्वार्थ के, वो मजहब को तराजू में नही तोलते कि में ड्यूटी पर इसके साथ क्यूँ जाउं ?क्यूँ इसके साथ दुश्मन का सामना करूं ये मेरे मजहब का तो है नही? सिपाही नही सोचता ये मजहबी बातें ये सब बातें भी हम ही आम आदमी सोचते हैं........
बस सोचिये....
और सिर्फ़ सोचिये...
और कुछ नही... :)
मैं एक मामूली सरकारी नोकर एक सिपाही की बात करे जा रहा हूं इतनी देर से और अब आप सोच में पड़ गए हो अरे ! अब कुछ नही कहूंगा उस मामूली सिपाही के लिए जानता हूं आप बोर हो गए होंगे.......है न हो गए न बोर ??
ये कुछ ऐसे ही सवाल हैं जो मुझे भी परेशान कर देते हैं मैं भी क्या करूं और किस-किसका साथ पकडूं होकर भी कोई नही मेरे साथ....अब आप ही बताइए क्या करूं ...गर मैं सही हूं तो किस-किस तक अपनी ये बात पहुचाउं अभी उम्र ही क्या है मेरी २० की गरम खून भी है और जल्दी भावुक भी हो जाता हूं और कुछ बुरा लगा हो तो क्षमा और क्या बोलूं और क्या कहे सकता हूं.....ग़लत हूं या सही हूं ये आपके नज़रिए पर निर्भर है.....
छोटा भाई या बेटा समझकर माफ़ कर दीजियेगा......
और हाँ आपकी एक ग़लतफहमी हो सकती है की ये सब ये इसलिए बक रहा है की इसके परिवार में कोई सैनिक है या कोई सिपाही है कोई नही है दूर से दूर तक विश्वास कीजिये और आप बहुत दूर की बात सोचें तो है मेरे परिवार में ही है लेकिन उस परिवार का नाम मेरा देश "भारत" है जिसके सदस्य आप भी हो..जानकर खुशी हुई हम सब एक ही परिवार के हैं....:) और हाँ
भारत देश के नाकि "INDIA" इंडिया का मतलब मैं नही जानता की उसे इंडिया क्यूँ कहा जाता है
ये बात अपनी "वन्दना मैंडम" को बतानी है मुझे ,उन्होंने ही ये पुछा था आपको मालूम है क्या? हर तरफ़ इंडिया का लेबल,मूल स्वरुप तो खो ही गया जो है भारत,और भारत नाम क्यूँ पड़ा ये आप जानते हैं तो फिर इंडिया क्यूँ? शायद नही पता होगा....मैं फिरसे वही कहूंगा बस सोचिये....
और सिर्फ़ सोचिये...
और कुछ नही... :)
अक्षय-मन..अक्षय-रहे बंधन

गुरुवार, 27 नवंबर 2008

मैंने मरने के लिए रिश्वत ली है ,मरने के लिए घूस ली है ????

हमारे सिपाहियों को मिलता क्या है ......... ?????/
कहीं कुछ की वजह से बदनाम हैं तो उनको याद कौन करेगा जो शहीद हो गए हैं ,सबकी नज़र में एक ही छबी बसी हुई है पुलिस डिपार्टमेन्ट की, उनको किस-किस ने देखा जो बलि चढ़ गए सिर्फ हमारे लिए हमारे देश के लिए ये बात सोचने की है एक सिपाही और एक आतंकवादी दोनों के क्या मकसद है दोनों को मिलता क्या है? ये कड़वा सच लेकिन दोनों को एक ही नज़र से देख रहे हो आप, क्या नहीं करता भारतीय सैनिक उसकी एवज में उसे मिलता क्या है सिर्फ़ बदनामी और रिश्वतखोरी का तमगा और आतंकवादियों को मिलता है ऐशो आराम जी भर उडाने के लिए पैसे
अब बताये लालची कौन है वो जिसे रिश्वतखोरी का तमगा दिया आपने या वो आतंकवादी जो बिना किसी बात केलोगो की बलि चड़ा रहा है जिसने आतंकवाद को अपना रोजगार बना लिया है!
इसके जिम्मेदार हम ख़ुद हैं कमजोर कर रहे हैं उन्हें ये सब बातें कहकर कामचोर,रिश्वतखोर न जाने क्या-क्या
जीतेजी कभी वीर-साहसी कहा जाता है उसे जो देश के लिए अपनी जान की बाजी तक लगा देते हैं जो ईमानदार हैं हम एक इंसान को ग़लत कहे सकते हैं पूरे डिपार्टमेन्ट को नही..क्या है आपकी नज़र में अब भी पूरा डिपार्टमेन्ट रिश्वतखोर?? मरने के लिए भी रिश्वत ली है उन्होंने आतंकवादियों से?
क्या अब आप उन शहीदों को रिश्वतखोरी का तमगा देंगे या साहस और बलिदान का ,अब आपका नजरिया बदल जाएगा क्युंकी यहाँ पर आप नही हैं आपके हाथ में बन्दूक नही आप नही लड़े लेकिन अब लड़ना है अब बन्दूक उठानी है उस आम नागरिक को भी क्या उचित होगा नही जानता इसके अलावा कोई उपाय है, आपकी नज़र में तो सब कामचोर रिश्वतखोर हैं अब आप बनिए इमानदार देशप्रेमी आइये मेरे साथ उठाइए बन्दूक चलिए आतंकवादियों को ख़त्म करने... कर सकते हैं?शायद नही कर सकते है न..तो आपको कोई हक नही बनता किसी को कुछ कहेने का !!"अब आप ही बताइए क्या एक सिपाही की वीरता और साहस को नज़र अंदाज़ कर दिया जाता है बोल दिया जाता है ये तो इनका काम है ! देश के लिए जान देना क्या एक सिपाही का यही काम है????अच्छा चलो ये भी मान लेते लेकिन उसके बदले में आप उसको देते क्या हैं सिवाय बदनामी ,रिश्वतखोरी के तमगे से सम्मानित करते हैं उसके जीते जी, और मरने के बाद वो वीरता पुरुस्कार देते हैं फ़िर वो किस काम का उसे क्या मिला जीवन में जीते जी ??? .मिला भी तो मरने के बाद ये कहाँ का न्याय है??????
बस उसे नाम दे दिया जाता है देश के लिए शहीद हो गया .
वाह रे! मेरे देश...वाह ! अक्षय-मन
प्रेरणा स्रोत ->शमा जी
इसे देखकर बताइए
वीडियो क्या हम ये कदम उठा सकते हैं?
अब ये कमेन्ट पढिये ..

"बेनामी said,
November 27, 2008 at 8:35 am
ये मेरे देश पर हमला है, हमारे देश पर हमला है और हम में हिन्दू मुसलमान, सिख सभी धर्म के लोग शामिल है. हमारे प्रधानमंत्री और हमारे देश के विपक्ष के नेता आडवानी जी दोनों कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हैं.
ये सिखाये पढ़ाये विदेशी हमलावर हिन्दू और मुसलमान के बीच विवाद की बात कह रहे हैं, और हम उनके खिलौने साबित हो रहे हैं!
मैं हेमन्त करकरे को शायद पसन्द नहीं करता था लेकिन उसने उस समय मेरे देश को बचाते हुये अपनी जान दी है जब मैं रजाई ओढ़ कर टेलिविजन देख रहा था? मेरे जैसे लोग किस मुंह से उसकी बराबरी कर सकते हैं? किस मुंह से मैं उसके बारे में गलत बोलूं?"
मेरे देश मुझे माफ करना, शायद मैं भटक रहा था!"

शोक, डर और असलियत./.ये कदम उठा सकते हैं?.




A Wednesday (2008)


इस विडियो को पूरा देखिये....
हम ये कदम उठा सकते हैं ????
मेरे हाथ काँप रहे हैं
ये लिखते हुए ये कहते और क्या बोलूं क्या कहूं कुछ समझ नही आता ...
क्या ये मुनासिब है???????

रविवार, 23 नवंबर 2008

सब कुछ हो गया और कुछ भी नही !!


तेरी-मेरी रूह पर दाग डले हैं जिस्मों के
धोने को और कुछ भी नही
अश्को से सींचा मोहब्बत की फसल को
यादों के कुछ लम्हे पड़े हैं,बोने को और कुछ भी नही ।

देखो अंदाज़ उनके,कत्ल कर पूछें हैं कातिल कौन है
जनाजे पर आज उनके शामिल कौन है ?
वो जहाँ मुहँ छुपाये खड़े हैं कब्र है मेरी
वो कोने और कुछ भी नही ।

और अब इस दिल के सितम देखो उसमे कैद है
एक बिलगती धड़कन,
भर-भर के सिसकियाँ,बहाये खून के आँसू
बेबस है इसके पास रोने को और कुछ भी नही ।

अजीब तूफ़ान है ये जुदाई का जो मेरी हसरतों
के महल को ढाता है,
हर हसरत बन चुकी अब गुमनामियों का खंडहर
फ़ना होने को और कुछ भी नही ।

तेरे लिए "अक्षय" एक टुटा हुआ तारा है
आज ख्वाहिशें पूरी करले अपनी,
लुटा चुका हूं सब कुछ अपना
अब खोने को और कुछ भी नही !!
अक्षय-मन

मंगलवार, 18 नवंबर 2008

जिंदगी जैसी चिता ना हो !!

जलती हुई इस रात मे सुलग रहा हूं मैं और
धुंआ बन उड़ रहा है ये वक्त ...
कुछ नही तो एक झोंका मेरी सांसों का सुलगते इस
जिस्म को और भी जला जाता है ...
जिंदगी की इस चिता मे जलती आग को और तेज़
भड़का जाता है ...
ना राख बन बिखरता हूं
ना मौत से मिलता हूं
जिंदगी की ना बुझने वाली चिता मे
जिन्दा ही जलता हूं !
गरजती तो हैं बिजलियाँ बेबस हो मजबूरियों से लेकिन
बरसती नही ये मौत ...
जो इस जलती चिता को कभी तो बुझा दे
कभी तो बरस ऐ मौत जिंदगी की इस जलती चिता पर
कभी तो इस जलते जिस्म की प्यासी रूह को अपनी आगो़श
मे ले और डूब जाने दे अपनी गहराइयों मे जहाँ कोई
स्वार्थी आग और जिंदगी जैसी चिता ना हो !!
अक्षय-मन

गुरुवार, 13 नवंबर 2008

बदले-बदले से कुछ पहलू


ख़ुद के लिए जो हर बात के माइने बदल देते हैं
नकाबों पे नकाब चढ़े हैं चहरे तो वही हैं पर वो
आईने बदल देते हैं !

वक्त की शाख़ पर यादों के पत्ते और आती-जाती हालातों की आँधियाँ
बिखरे-बिखरे से कुछ रिश्ते बीते लम्हों के जैसे,समेटने निकलूं गर,
वो अपने घर-घराने बदल देते हैं !

प्यार तो एक बुलबुला है ज़ज्बातों का एक बूंद भी सैलाब ले आएगी उसमे
ज़रा आंसुओं को थाम लो अपने कभी-कभी ये अश्क भी अफ़साने बदल देते हैं

उड़ते आसमां को छूने की ख्वाइश अगर ये रुके-रुके से कदम कर लें तो
कसूर नही अपना क्या कहें, तुफानो की आहट पे आसमां तो
आसमां लोग-बाग ज़माने बदल देते हैं

तुम साकी "अक्षय" को दोष ना दो नशे मे है वो या कहलो है मदहोश मोहब्बत मे
इसलिए तेरे लबों से जो छूकर आए वो झूठे पैमाने बदल देते हैं

अक्षय-मन

बुधवार, 5 नवंबर 2008

कहाँ गई वो मधुशाला

बूंद-बूंद है श्रापित किन्तु जहर नही वो अमृत-प्याला
तुझ बिन मेरा हाल हुआ क्या कहाँ गई वो मधुशाला
मन-सागर की लहरों से मिल जाए बहती कोई अश्रु-धारा
हर मोज से आवाज उठे फिर कहाँ गई वो मधुशाला !!

घूँट-घूँट से प्यासा हूं अविरल भटकूं मतवाला
बहके-बहके मन से छलके खोई हुई वो मधुशाला
बार-बार बोले तू , ये है मेरा अन्तिम प्याला
छलका-छलका फिर पीता है पिए जाए पीनेवाला
कहाँ गई वो मधुशाला,कहाँ गई वो मधुशाला !!

होठों से है आग बरसे ,नयनो से निकले एक ज्वाला
कतरा-कतरा ढूंढे है मिल जाये कही तो मधुशाला
पी-पीकर खेलूं जिस्म से अपने आत्मा से मैं हूं हारा
सुबह उठ फिर पूछुं तुमसे रात का वो अँधियारा और
कहाँ गई वो मधुशाला,और कहाँ गई वो मधुशाला !!

मदिरा संग मुग्द मैं रहा जैसे संग हो कोई ब्रज-बाला
नशे मे डूबे दोनों हैं चाहें मैं आवारा,चाहें वो हो मुरलीवाला
उसको नशा था यौवन का मुझको नशा किसी जोगन का
तडपे दोनों कुछ ऐसे, जैसे दोनों से रूठी हो मधुशाला
और "अक्षय" जो ख़ुद से बेखबर हैं वो पूछें हैं
कहाँ गई वो मधुशला,कहाँ गई वो मधुशाला
अक्षय-मन

शनिवार, 18 अक्तूबर 2008

मिस यू पापा

ये पन्ने हैं जिंदगी के इनमे आपका पता तलाशता हूं
आप खो गए हैं मगर अब बस आपकी यादों का हिसाब
संभालता हूं

बस एक पन्ना खाली छुटा है मेरी इस किताब का
बात वो अधूरी छोड़ गए बोले,बेटा अभी बताता हूं

बस मेरे मे ही सीमित है आपके रूप का हर रंग
अपने जिस्म के हर हिस्से को आपमे ही बसाता हूं

गुजरते बचपन के साथ वक्त भी ये गुजर जाएगा मगर
गुजरे हुए कल की गलियों से मै अब भी गुजरता हूं

मेरा मुक़द्दर तो देखो ये मुझे छोड़ मेरे अपनों पर कहर ढाता है
इसलिए जिस्म छोड़ कभी-कभी आपके साथ निकल पड़ता हूं

अकसर बचपन मे आसमानों मे छिपे राज आप सुनाते थे मुझको
अब क्यूँ नही बरसते आसमां से आप,देखो तो जरा मे कितना गरजता हूं

अक्षय
-मन


गुरुवार, 16 अक्तूबर 2008

ये नज़्म है प्यार की.......


यादों
की हिफाज़त करते हुए
हम रातों को जागा करते थे
अंधरों मे भी तेरी यादों के
उजालो का तसव्वुर करते थे
उजालो का तसव्वुर करते थे
यादों की हिफाज़त करते हुए
हम रातों को जागा करते थे

तस्वीर नही निगाहों मे ना
दिल मे तू धड़कती थी
ना दिल मे तू धड़कती थी
फिर भी होठ मेरे ये अन्जाने
पल-पल तेरी बातें करते थे
पल-पल तेरी बातें करते थे
यादों की हिफाज़त करते हुए
हम रातों को जागा करते थे

हर आईने मे है अक्स तेरा
तू नही है तो क्या हुआ
ये आईना तो है मेरा
अश्को को गिरा-गिराकर हम
आईने को पोछा करते थे
आईने को पोछा करते थे
यादों की हिफाज़त करते हुए
हम रातों को जागा करते थे

ये दर्द भी है तो क्या गम है
हमारा प्यार तो "अक्षय" रहेगा न
तू चली गई है तो क्या गम है
ये क़र्ज़ तो मुझपे रहेगा न
आसमां के इस आँचल मे
हम दो सितारे चमका करते थे
हम दो सितारे चमका करते थे
यादों की हिफाज़त करते हुए
हम रातों को जागा करते थे

अक्षय-मन

शनिवार, 4 अक्तूबर 2008

अब दर्द बनके पनपता है वो प्यार वाला पल



खाली बोतल सी है अब ये ज़िन्दगी मेरी
जिसमे
तेरा नशा ना हो ऐसा जाम ना दो

तुम क्या रखोगे अपने पास उन पलों को
उन्हें लौटा दो मगर ऐसे सरेआम ना दो

क्यूँ समझोगे ग़म मोहब्बत का तुम लेकिन
इन छलकते आंसुओं को पानी का नाम ना दो

वक़्त-वक़्त पर बदलते हैं तेरे ये जो मिज़ाज
प्यार मेरा मौसम तो नही ऐसा इल्ज़ाम ना दो

पर्दा तो तब करूं जब आबरू महफूज़ हो मेरी
आईने भी अब मुह छुपाये ऐसा अन्जाम ना दो

तुम नज़्म हो अमीरी जैसी जिसमे कोई ज़ज्बात नही
तुम मेरी खामोशियों को ऐसी नज़्मो का इनाम ना दो

हम गुम भी हैं गुमसुम भी तुम कहो तो गुमनाम भी हम
चल पड़े हैं ग़म-ए-राह पर हम अब कोई पयाम ना दो

ऐसा प्यार क्या मुमकिन है जो हो "अक्षय" सा
बिकाऊ नही है मेरा प्यार तुम इसका दाम ना दो

अक्षय-मन

शनिवार, 27 सितंबर 2008

सवाल

सवालों के शहर में जवाबों के जैसे अनजान मुसाफिर हो गए हम
हर आईने में दिखती हकीक़त के गुनाहगार हो गए हम

सवालों पर सवाल आते गए आते ही रहे
देखते ही देखते सवालों के बाज़ार हो गए हम

आईने के सामने होते हुए भी हकीक़त ना जान पाए
तेरा क्या बोलूं ख़ुद की निगाहों में बेज़ार हो गए हम

सवालों को अब सवाल ही रहने दो उन्हें तलाशों मत
हम तो पूरे लुट चूके सवालों के तलबगार हो गए हम

उल्फत क्या करूं उनसे जो ख़ुद इन सवालों से अनजान हैं
उनके लिए इन सवालों के मुफ्त के इश्तिहार हो गए हम

किस गफ़लत में हो मियां सभी इन सवालों की आगोश में हैं
इसी का इज़्हार करते-करते ग़मगुस्सार हो गए हम

ना गैरत,ना गुरुर,ना है गुबार कोई हम तो बस बेगुन्हा हैं
फिर क्यूँ सवालों की सलाखों के पीछे गिरफ्तार हो गए हम
अक्षय-मन

बुधवार, 24 सितंबर 2008

पहचान


है सामने आईने के अक्स मेरा बस आईना कोई और है
पहचान तो मेरी वही है बस पहचानने वाला कोई और है


धीरे-धीरे सुलगती पहचान मेरी ना बनी आतिश
ना धुआं बन गुम होती है
ये सजा है मेरी
ये गुनहा कोई और है
है मेरी पहचान क्या
ये बात कोई और है

मुझे मेरी पहचान ख़ुद नही उन खामोशियों,तनहाइयों ने
मुझको अपनी पहचान दी है
हालात क्या थे? मजबूरियां कौन सी थी ? किस्मत कैसी थी ?
मुझे क्या पता ये सवाल कोई और हैं
है मेरी पहचान क्या
ये बात कोई और है

जिंदगी के सफर मे हजारों चहरे मिले-जुले,पहचान हुई
पर अब कोई वास्ता नही,पाँव तो अपनी जगह हैं पर
अब कोई रास्ता नही
बदलती दुनिया के साथ पहचान बदली,जिस्म तो वही है
पर अब रूह कोई और है
है मेरी पहचान क्या
ये बात कोई और है

इतने आंसू बहा लिए कि मेरी पहचान भी बह गई वक़्त
के उस दरिया में
अब मैं हालात के बहाव में बहता हूं,थाम लें जो मुझको
वो किनारे कोई और हैं
है मेरी पहचान क्या
ये बात कोई और है

नाम तलाशता हूं क्यूंकि गुमनाम हूं
पहचान तलाशता हूं क्यूंकि अनजान हूं
हालत कोरे कागज़ सी मेरी ना कोई दास्तान,
ना कोई कहानी मेरी,जो पहचाने मुझको
वो कलम कोई और है
वो कलम कोई और है
है मेरी पहचान क्या
ये बात कोई और है
ये बात कोई और है ॥

शनिवार, 13 सितंबर 2008

अर्थ ???


जिन्दगी सवालों के लिए अर्थ की एक दुकान है
अर्थ तो बेजान पड़े यहाँ लेकिन सवाल मूल्यवान है ।
रोज एक सवाल खरीदार बन चला आता है
ख़ुद सवाल बन चुकी इस ज़िन्दगी से वो सवाल
एक सवाल पूछता है
बोलो इस अर्थ के क्या दाम हैं
बोलो इस अर्थ के क्या दाम हैं ?

बिकते-लुटते वे अर्थ,आज उनका ठिकाना दुकान नही मकान है
क्या पता सवाल अर्थ पर निर्भर हैं या अर्थ सवालों पर
इससे तो ज़िन्दगी भी अनजान है
बोलो इस अर्थ के क्या दाम हैं
बोलो इस अर्थ के क्या दाम हैं ?

सवालों को उनके अर्थ तो मिल गए लेकिन उस अर्थ का क्या
वो अब बदनाम है
आज वो अर्थ सवालों के साथ रहते-रहते ख़ुद सवाल बन गए हैं
वो तो कुछ रातों के महेमान थे उनकी मंजिल तो एक वही
दुकान है
बोलो इस अर्थ के क्या दाम हैं
बोलो इस अर्थ के क्या दाम हैं ?

अब सब शब्दहीन,अर्थहीन ना कोई पहचान है
हर अर्थ पर एक प्रश्नचिन्ह वो भी गुमनाम है
सवालों पर सवाल आते गए,आते गए
ज़िन्दगी की उस दुकान में खरीदार तो बहुत थे
अर्थ नही अब तो सवालों का क्या काम है
बोलो इस अर्थ के क्या दाम हैं
बोलो इस अर्थ के क्या दाम हैं ?
अक्षय-मन

गुरुवार, 11 सितंबर 2008

गीत गाया शब्दों ने

एक हाथ में आंसू हैं जो मेरी आँख से टपके थे
दूजे हाथ कलम के रंग आंसुओं के संग,जो कोरे कागज़ रंगते थे
आसमां के आँचल में पलते थे,संवरते थे
फिर आते वो मेरे पास कल्पनाओं की उड़ान भरते हुए
जानते हो "शब्द" वो अनोखे थे ।

फूलों सी महक,कोयल सी चहक वो गीत प्यार का गाते थे
शब्द-शब्द के मिलन से एकमात्र दिल की लगन से
वो सोये मर्म को जागते थे ।

एक मैं था एक दीया था कुछ अनखिला सा उस रात खिला था
लेकिन शब्दों की भरमार थी
तन्हा रात की उस चांदनी में ना जाने क्या बात थी
क्या समाँ था क्या पवन थी गगन में तारे थे
जमीं पर जुगनूओं की झिलमिलाती रौशनी थी
वक्त ना जाने कब गुजर गया कलम तब रुकी जब पता चला
ये आज की रात हैं वो कल की रात थी ।

फिर शब्दों की बारिश हुई ऐसे जैसे आया हो सावन खुशी का
तन भीगा,मन भीगा ,भीगा है आँचल (होठ) हँसी का
जो चाहो इसे तुम मान लो चाहें मानो
आँचल आसमां का या मानो रात चाँदनी की
चाहें मानो रौशनी जुगनूओं की या मानो सावन खुशी का
ये सब तुम पर निर्भर है क्यूंकि ये सब सिर्फ़ है तुम्ही का
सिर्फ़ है तुम्ही का॥
अक्षय-मन

बुधवार, 10 सितंबर 2008

वक़्त


वक़्त की उन शाखों से टूटे हूए लम्हों का हिसाब मांगता हूं
अगर दुःख वक़्त के साथ -साथ गुजर जाता तो मैं यादों को
एक सवाल मानता हूं
ये सवाल,ये हिसाब न जाने कब सूलझे ,
वक़्त कभी नही सोता ये मैं भी जानता हूं ।

वक़्त से वक़्त माँगा वक़्त के साथ चलने के लिए
वक़्त ने हमें वक़्त तो ना दिया सवाल जरूर खड़े कर दिए
बस उन्ही सवालों में कुछ इस कदर घिरा रहा
वक़्त तो आगे बढ़ गया
और मैं वहीँ खड़ा रहा ।

सितम ढाते वक़्त को बदलने की कोशिश तो हम किए गये
इसमे गुमनाम भी हो गये चहरे भी बदल गये
लेकिन न जाने क्यूँ?
वक़्त तो ना बदला हम जरूर बदल गये
अब वक़्त जानता है हमें उसके हर सितम सहने की आदत सी हो गई
और इसपर वो सितम ढाता रहा हम सहते गये
आँसू तो ना बहे ज़ख्म जरूर नासूर बन गये
बस यही तो एक गम है कि आँसू ना बहे
वो ना बने मरहम
वो काश! बन जाते मरहम उन जख्मों के लिए
जो हर घड़ी, हर कदम वक़्त के हाथों कुरेदे गये ।

जानते हो बुरे वक़्त कि भी एक खासियत है
कि वो भी गुजर जाता है
लेकिन गुजरते हुए भी कुछ दाग दामन पर छोड़ जाता है
ये दाग दुनिया कि नज़रों से कैसे छुपा लूं ?
या फिर बुरे वक़्त के साथ ही जीवन गुजारूं
कैसे सवाल हैं ये,मुझसे क्यूँ पूछते हो मैं नही जानता हूं
वक़्त कभी नही सोता बस मैं यही जानता हूं
यही जानता हूं ॥

बुधवार, 13 अगस्त 2008

आत्म-सत्य


आत्मा को त्याग शरीर किस तृष्णा मे लीन है
मोक्ष ना मिल पाया इसको ये कितना मलिन है !

रोम-रोम जब रम जाता
रूपान्तर हो दूसरा रंग जब चढ़ जाता
एक जन्म मे दो बार तू जन्मा है
पहले नाम था तेरा काल्पनिक जीवन
अब परिमार्जित आत्मा है !

लौकिक द्रष्टि से देखूं तो
पता चले कितने पाप किए
हर सवाल का उत्तर आता मौन
अन्तिम पल पश्चाताप की आग मे जले !

हरण किया उस आबरू का तुने
जो तुझमे मे ही बसती थी
हुआ ना जाने तुझको किया
ये बार-बार कहती पनपती थी कि
मैं तेरा ही अभिमान हूं तू मुझको ही सताएगा
मुझको तुने लूटा तो लूटा ,तेरी हो क्यूँ दुसरो से लूटती थी !

आत्मा सो गई है आबरू रो रही है
अँधेरा जाग गया रौशनी खो गई है
मैं क्यूँ अब तक ना समझ पाया था
देख आईना तो ये जाना मेरी आंखें मेरी ही
आँखों से पर्दा कर रही है !

अब ख़ुद से नज़रे मैं ना मिला पाउं
हकीक़त मे पले आईने से मैं घबराउं
परछाइयों के पीछे मैं भागू लेकिन
उनको कभी मैं छुं ना पाउं !


इन सपनो की वादी में आखें मेरी कल्पनाओं की उड़ान भरती हैं
इन नयनो की सीपी में आशाओं के मोती हैं

चित्त-चरित्र तथा चेकित(ज्ञानी) की चेतना
वस्तु-विचित्र तथा वाक्यों की व्यंजना
आकांक्षाओं की पूर्ति कर नए रूप को दर्शाती है !

भद्र-भला तथा भव्य भविष्य को भांपना
ममत्व-मनोरम तथा मर्यादा को मांपना
दुखो को दूर कर दबंग,वैभवशाली बनाती है !

शालीन-शमन(शान्ति) तथा शैशव(बचपन) सा शरमाना
कथनी-करनी तथा कुशल-कृतघ्नता की कल्पना
स्वार्थी ना बना हित्तोप्देश सुनाती हैं !

सजीव-संगति तथा सप्रेम संचित कर सदन सजाना
घनिष्ठ -घरेलु तथा एक घूंट में घमंड सारा पी जाना
ऐसे रिश्ते ऐसे नाते अक्षय-बंधन को अमृत पिलाती हैं !!

मंगलवार, 12 अगस्त 2008

जीवन



अब तुझसे कैसे कुछ कहूं
क्या तेरा है क्या मेरा है
कौनसी डगरिया पर जाना है
ना तू कुछ पूछे ना मैं बोलूं

बस तेरी ही आस्था अपने मन में बसाये
मैं तेरा ही जीवन व्यतीत कर रहा हूं
ना कुछ देकर जाउंगा ना कुछ लेकर आया हूं
मैं हूं तू या तू बन जाउं मैं, हैं एक मन में समाये

क्या विद्वान् क्या अज्ञानी सब हैं तो प्राणी
क्यूँ बने स्वार्थी, क्या ज्ञान भी कोई लुट पायेगा
दे दे इसे ना तो तेरा सारा ज्ञान व्यर्थ जाएगा
भेद-भावः क्यूँ करते फिर कैसी है इनकी वाणी

अरे! तेरे ये लोचन भरे हैं अश्रु और गम
तू कब तक ये अनमोल मोती लुटायेगा
लालची है दुनिया तू कब समझ पायेगा
छुपा इन मोतियों को ना तो लुटा जाएगा हर दम

मैं तेरा ही रूप हूं तेरा ही एक अंश हूं
बस मैं रात हूं, तू है सुबह से
बस मैं एक पल हूं, तू है समय से
ये जानकर भी अनजान मैं हूं,गुमनाम मैं हूं

आध्यात्मिक रूप लिए हूं परमात्मा की छबी हूं
ओ!बेसुध अशांति तू क्या भेद पाएगी मुझको
बता मुझसे क्या बिल्कुल डर नही तुझको
मैं मौन शस्त्र का धारक तेरा विनाशक हूं

क्या बुरा है क्या भला है सब जीवन के संग चला है
ना तू ये समझा पायेगा ना मैं कुछ समझ पाउंगा
जीवन के तराजू मे कर्म को तोल कर ही कुछ दे पाउंगा
सबको कुछ ना कुछ मिला है कोई ना खाली हाथ खड़ा है अक्षय-मन

बुधवार, 6 अगस्त 2008

कुछ अपना ही....अपनी कहानी अपनी जुबानी


दाग की यही खासियत है ना जख्म नज़र आता है
ना दर्द की कसक जाती है
झुलसी यादों की भी यही फ़ितरत है ना कोई मरहम लगाता है
ना झुलस की दहक जाती है

क्यूँ खुरच रहे हो मेरे उन जख्मो को हालत अब ये है
ना खून बहता है ना आँख नम हो पाती है
दर्द मे घुटने की मेरी बचपन से आदत है
अब ना बचपन रोता है ना जवानी जाम पी पाती है

एक घूंट मे पी गया बचपन के सारे गमो को मैं
अब ना जहर असर करता है ना जिंदगी दम भरती है
खुश-किस्मत हूं सबकी नफरत खैरात मे मिली मुझे
अब ना हँसना आता है और ना खुशियाँ रहम करती हैं

वक्त कहाँ दवा बना? वो यादें उम्र भर जख्मी करती रही
ना उन अंधेरो मे खोये लम्हों का हिसाब मिलता है ना कोई रौशनी थम पाती है
सिसकता-तड़पता रहा रात के अंधरे सन्नाटों मे
अब ना खौफ जहन से जाता है और ना सोता हूं क्यूंकि ये नींद भी सहम जाती है


आईना क्या देखूं अब ख़ुद ही आईना बन गया हूं
ना हकीक़त से डर लगता है और ना आँखें गम छुपा पाती हैं
अब तक बदकिस्मती मुझे तलाशती रही मै किसकी तलाश करूं
ना किसी का प्यार 'अक्षय' बनता है ना कोई नई उम्मीद जन्म ले पाती है अक्षय-मन

सोमवार, 4 अगस्त 2008

ढाई आखर प्रेम के


वो पावन सा है दिल जिसका जो मोजों की रवानी है
वो सावन सा है मन जिसका जो ओंसो की जवानी है
ना ये तेरी कहानी है ना ये मेरी कहानी है
ढाई आखर प्रेम के इतनी बात बतानी है
ये प्रेम कहानी है!
मैं तुझसे दूर हूं लेकिन एहेसासों में मैं जीता हूं
तू गर है मदिरा तो मैं मदिरा की आतुरता हूं
कहाँ जाएगा तू बचके इतना तू बतला दे
है अगर समुंदर तू मैं उसका अहाता हूं
कभी अश्को का बादल था
अब खुशियों का सागर हूं
कभी तिनको का आँचल था
अब महफिलों की गागर हूं !
किसी का तू दीवाना था अब दुनिया तेरी दीवानी है
मानो तो प्रेम ही जीवन न मानो मनमानी है
ना ये तेरी कहानी है ना ये मेरी कहानी है
ढाई आखर प्रेम के इतनी बात बतानी है
ये प्रेम कहानी है
ये प्रेम कहानी है!!


शनिवार, 2 अगस्त 2008

आध्यात्मिक प्रेम



जाने किस चिन्तन में
डूबा है ये अज्ञात मन ,
हो-हो व्याकुल ये तड़पे
जर्जर-जर्जर हो सारा जीवन !

किस बात की पीड़ा है तुझको
क्यूँ ढलता तेरा ये यौवन ,
तेरे नयनो की ज्योति से
अब क्यूँ न हो मेरा मन मोहन !

मर-मर जाती है अब तेरे
होठो से आती वो बतियाँ,
ये बदला सा क्यूँ रूप है तेरा
क्यूँ खिलने से पहले मुरझाई कलियाँ !

तेरी इस व्याकुलता से
जागे मेरी सोई रतियाँ ,
पहचाने ना तू मुझको भी
क्यूँ खो दी तुने सारी सखियाँ !

कौन-सा रोग है तुझको हुआ
मुझको अब कुछ सूझे ना ,
नयनो से टपके अश्रुओं को
षधि समझ तू पी लेना !

मैं तुझको क्यूँ छु ना पाउं
क्यूँ मेरी पुकार तू सुनती ना ,
बन पगला आगे-पीछे मैं डोलूं
तू मुझको दिख-दिख जाए
मैं तुझको क्यूँ दिखता ना !!

गुरुवार, 31 जुलाई 2008

मर्मस्पर्शी


कुछ शब्द जो पकते रहे मन की असीमित उचाईयो वाले वृक्षों पर
और टूटकर गिरते रहे बिखरते रहे कोरे पड़े उन पन्नो पर

और माली थी एक कलम जो इस मन-वृक्ष के शब्द फलो को
एक नया रूप दे उनको सवांरती थी
जब कल्पनाओं की बारिश होती थी
कुछ यादें जब बादलों में बदलती थी

तब-तब वो मन-वृक्ष झूम उठता खिल उठता
शब्दों को नया जीवन मिलता
एक नई उमंग नई तरंग के साथ शब्दों का विकास होता

और जब संवेदना से सुगन्धित आस्था पुष्प मन-वृक्ष पर खिलते
तब ये पुष्प अपनी महक से सबको सुगन्धित-आकर्षित करते

सिलसिला चलता रहा परन्तु मन-वृक्ष अब बुढा हो गया चला
लेकिन समय के साथ-साथ शब्द-फल और रसीले हो गए
वो आस्था फूल और भी सुगन्धित हो गए
लेकिन वो माली-रुपी कलम थक चुकी थी, हाथ कांपते थे
किन्तु कल्पनाओं की बारिश आज भी उतनी ही प्रबल थी
वो यादें भी बादल का रूप ले मानसपटल पर छाई हुई थी

वो वृक्ष आंतरिक रूप से तो सम्पूर्ण था लेकिन
बाहर से समय के साथ-साथ कमजोर हो रहा था

उस मन वृक्ष ने हमारे लिए जीवन भर संघर्ष किया
जीवन को नया रूप नई सोच मिली शब्द-फल के सेवन से

फिर भी तुम स्वार्थी बन गए
कटु शब्दों से बचाया नई सीख दी छाया दी क्या तुम
उस आँचल को,उस मर्म को, उस कवि को भूल जाओगे?????अक्षय-मन
इसके मर्म को समझिये .....यही प्रार्थना है आपसे

रविवार, 27 जुलाई 2008

कभी-कभी


कभी-कभी ख़्याल आ जाता है
जिंदगी की किताब में जो पन्ने
मुड़ गए हैं उन्हें सवारने का ख़्याल आ जाता है
कभी-कभी ख़्याल आ जाता है

वो पन्ने कुछ इस तरहां घिरे हैं सवालो के घेरे में
वक्त गुजरता रहा हम पन्ने पलटते रहे उन सवालों
पर भी एक सवाल आ जाता है
कभी-कभी ख्याल आ जाता है

न जाने कौन सी सियाही से लिख रहे हैं हम इन पन्नो को
जब अश्क पानी न बन खून के रंग में ढल जाते हैं तब कलम
में ख़ुद-ब-ख़ुद कमाल आ जाता है
कभी-कभी ख्याल आ जाता है

अब सूरत भी नही दिखती इन किताबो में उनकी
न जाने हम उन्हें पड़ नही पाये या वो हममे ढल
नही पाये आज भी ये सवाल आ जाता है
कभी-कभी ख्याल आ जाता है

कोशिशें बहुत की वो गुलाब देने की उन्हें वो अब भी है
कैद किताबो के पन्नो में जब देखता हूं उसे न देने का
मलाल आ जाता है
कभी-कभी ख्याल आ जाता है


अब दो ही पन्ने बचें हैं जिन पर जिंदगी के हिसाब लिखने बाकि हैं
चार पन्नो की ही तो है ये कहानी मेरी दो पन्ने अनसुलझे सवालों में
निकल गए दो मलाल में फिर भी उस बेगाने का ख़्याल आ जाता है
कभी-कभी ख़्याल आ जाता है
कभी-कभी....
अक्षय-मन

शुक्रवार, 25 जुलाई 2008

तू क्यूँ ना आए ?


बरस गया ये सावन तू क्यूँ ना आए
तरस गये ये नयनन तू क्यूँ ना आए !

आवत है अब मेरे आगन सखी मेरी अनैहा(अशांति)
चुप-चुप देख मुझे वो कहवे क्यूँ तरसे बीते रैना
आहत होय अब मेरे नयना मेरी औषधि अश्रु बन जाए !
बरस गया ये सावन तू क्यूँ ना आए
तरस गए ये नयनन तू क्यूँ ना आए !

केश मेरे वो घने-घने जो तेरे मुख पर गिर-गिर जाए
उलझ-बिखर पड़े हैं वो उनको अब कोई ना सुलझाए
मेरे नयना गागर मदिरा ,सूख गए सब तू कैसे मदकाए
बरस गया ये सावन तू क्यूँ ना आए
तरस गए ये नयनन तू क्यूँ ना आए !

मैं बन शोभन श्रृंगार रचूं ,मैं बन जोगन गुणगान करूं
पतन हुआ अब योवन मेरा,जोगन से मैं जीर्ण(खंडित) बनूं
आतुर-अधीर(व्याकुल) हो-हो फिरी मैं, मन में बसे तुम
दिखो भगवन में जब ढूंढा जग में तब तू ना मिल पाए !
बरस गया ये सावन तू क्यूँ ना आए
तरस गए ये नयनन तू क्यूँ ना आए !

मन-मन मोह ले तेरी बतियाँ अब तू मुझसे क्यूँ ना बतियाय
बेसुध पड़ी अबुध(अनजान)खड़ी अब तू मुझको क्यूँ ना सताए
तेरी पुकार,तेरा दुलार,तेरी फटकार,तेरा प्यार मुझे वो सब याद आए
बरस गया ये सावन तू क्यूँ ना आए
तरस गए ये नयनन तू क्यूँ ना आए !

गुलाब पंखुडियाँ से होठ रसीले
अंगूरी मदिरा से नयन नशीले
मुरझा गए सब सूख गए अब
होठ रसीले वो नयनो के मदिरा प्याले
हुआ क्या मुझको तू ही बता रे
तुझमे हुई तल्लीन मैं या हुई
तुझसे मलिन मैं,ये मुझे अब कौन बतलाए
बरस गया ये सावन तू क्यूँ ना आए
तरस गए ये नयनन तू क्यूँ ना आए !

सो-सो जाती थी मैं पहले तेरे काँधे सिर रखकर
तेरे बिन जो सोना चाहूं मोहे अब निंदिया ना आए
पैर पसीरुं या मुख मैं फेरूँ हर बात में तू याद आए
मेरी पीड़ा तू क्यूँ ना समझे क्यूँ ना अपने पास बुलाए
बरस गया ये सावन तू क्यूँ ना आए
तरस गए ये नयनन तू क्यूँ ना आए !अक्षय-मन

शनिवार, 19 जुलाई 2008

बस तुम करवट मत लेना ,सपने (२)



रात फिर वो सिलवटें जाग गई जरा सी करवट लेते ही
और वहीं -कहीं पड़े कुछ सपने कुलबुला उठे
उन सिलवटो से हुई बैचैनी से ...

वो कराहना मेरा उस बेचनी को देख
आँचल में लपेट लिए सपने सारे
पता है उस आँचल में सपनो
के साथ कोई और भी रहता है
एक हकीक़त रहती है एक विश्वास रहता है ...

न जाने क्यूँ उम्र के साथ-साथ वो सपने भी ढल जाते हैं
अधूरे उन सपनो की कोई मज़बूरी रहती है
या जाने कुछ मलाल रहता है ...

कौन कहता है सपने देखना बेहद आसान है
मैं बता दूं सपने देखने में भी कुछ अर्चने आया करती हैं
वो हलचल वो बैचैनी कुछ करवटें कुछ सिलवटें
वो लाया करती हैं ...

रात की गुप्त खामोशी में वो सपने
मुझसे आकर बोला करते हैं
जुबान नही उनकी तो क्या
वो मन के भेद खोला करते हैं ...

अभी ये थोड़े हकीक़त से अनजान हैं
थोड़े हैरान थोड़े परेशान हैं
इसने भी एक सपना देखा है
हकीक़त में ढलने का इसे भी अरमान है ...

अभी तो वो परियो की दुनिया में रहते है
लेकिन खुशयां मेरे आँचल में भरते हैं
जब हम स्मरण कर उन्हें पास बुलाते हैं
तो वे थोड़ा शरमाते हैं थोड़ा इठलाते हैं
बड़ी मिन्नतों के बाद करीब आते हैं .....
और चुपके से आकर बोलते हैं
अब करवट मत लेना न तो सिलवटें
जाग जाएँगी मुझे उन से बहुत डर लगता है
कहीं तुम्हारी नींद न टूट जाए
कहीं तुम्हारा सपना न टूट जाए
कहीं मैं अधूरी न रहे जाउं
बस तुम करवट मत लेना न तो सिलवटे
जाग जाएँगी मुझे उनसे बहुत डर लगता है
बस तुम करवट मत लेना

गुरुवार, 17 जुलाई 2008

गुरु-वंदना


हे गुरु! हे प्रभु!
मेरा ज्ञान मेरा सम्मान मेरे जीवन का आधार हो तुम
मेरे इस अचल अस्तित्व की पहेचान हो तुम
हे गुरु! हे प्रभु! मेरे भगवान् हो तुम

मेरा वरदान मेरा अभिमान मेरा संसार हो तुम
मेरे कृतार्थ होने का परिमाण हो तुम
हे गुरु! हे प्रभु! मेरे भगवान् हो तुम

मेरा जन्म मेरा अंत और मोक्ष का साधन भी हो तुम
मेरे मलिन जीवन का परिमार्जन हो तुम
हे गुरु! हे प्रभु! मेरे भगवान् हो तुम

मेरा मनोरम मेरा लड़कपन और मेरा आश्वासन हो तुम
मेरे नूतन तन की तन्मयता हो तुम
हे गुरु! हे प्रभु! मेरे भगवान् हो तुम

मेरा मर्म मेरा "मैं" और मेरे शब्दों की व्यंजना हो तुम
मेरे अस्तित्व को अक्षय करने की वंदना हो तुम
हे गुरु! हे प्रभु! मेरे भगवान् हो तुम

मेरा अर्पण मेरा दर्पण और मेरा आवाहन हो तुम
मेरे प्रबल मनोवेग के लिए अभयदान हो तुम
हे गुरु! हे प्रभु! मेरे भगवान् हो तुम

मेरा परिचय मेरा अध्याय और मेरा अभ्याय भी हो तुम
मेरे सत्य होने का अभिप्राय हो तुम
हे गुरु! हे प्रभु! मेरे भगवान् हो तुम
हे गुरु! हे प्रभु! तुम्ही तुम हो तुम्ही तुमहों अक्षय

बुधवार, 16 जुलाई 2008

कविता


क्या मैं आज आलोचना बन गई हूं
मानवता के बदलते रंग में क्या मैं
भी ढल गई हूं

कविता हूं कवि की मूकता उसके मर्म
को रश्मि-रूप देती हूं
क्यूँ आज मैं सादगी से सजा बन गई हूं

आज अथाह को तू ना जाने मैं एहेसासों
में बसती हूं
आज मैं मलिन हो तेरी नज़रों में मिथ्या
बन गई हूं


मैं तो रचित हुई तेरे लाभांश के लिए किन्तु
अब मनोरंजन करती हूं
मैं तो रूपक थी अमूक की कविता थी अब मैं खुद
लाचारी बन गई हूं

शब्दों से पिरोई एक माला हूं किन्तु अब आवंछित
कहेलाती हूं
मेरी तम्यता मेरी मधुरता कुछ नहीं क्या आज मैं
लोभी बन गई हूं

कागज रचती थी कलम और जो हम कल्पनाओं में बातें करते थे
ये शब्दकोष कविता-रूप तब लिया करते थे जब शब्दों का
श्रृंगार हम अपनी भावनाओं से करते थे
मेरी कल्पनाये मेरी भावनाए और साथ ये शब्द-कोष सब हो
गए अब कोष्ठ्को में कैद और शैली से मैं आज शोक बन गई हूं

मैं कविता से कनक बन गई अक्षर-स्वर्ण हुआ करती लेकिन अब
विकल(व्याकुल) करे ऐसा विष-फल बन गई हूं
मैं तो वेदिका थी शब्दों के सूत्र से तेरी ही बधू बनी थी
विष-फल तुने मुझे बनाया और अब विधवा भी बन गई हूं

मेरी व्यथा तो देख श्रापित शब्दों से बुना मैं तेरा कफ़न भी बन गई हूं
तेरा कफ़न भी बन गई हूं मैं कविता नही कुछ और बन गई हूं कुछ
और बन गई हूं अक्षय-मन
क्या हमारे लिए ये शर्म की बात नही??????

सोमवार, 14 जुलाई 2008

रिश्ते


कौन सा दिल तलाश करोगे कौन सा दिल अपने पास रखोगे
वो धुन बचपन कि खो गई अब क्या अब रोता अलाप सुनोगे
मन को समझाया है आज क्या सिर्फ बचपन की याद रखोगे
कैसे-कैसे रिश्ते बनते वक़्त को देख सब हैं बदलते,क्या करोगे ?
कौन सा दिल तलाश करोगे ,किन-किन रिश्तों का मान रखोगे?

मज़बूरी की डोर है या है हालातों का बंधन तुम इसका क्या नाम रखोगे
कुछ समय का समझोता या है किसी व्यापारी का सौदा बोलो क्या कहोगे
कौन सी बीती श्याम रखोगे या खोया हुआ समान रखोगे,क्या करोगे ?
कौन सा दिल तलाश करोगे,खून के रिश्ते फिर बदले अब पानी नाम रखोगे

गई अंधी नीति ये है रिश्तों की राजनीति भेद-भावः की क्या तुम जंग लड़ोगे
संस्कारों में आती गिरावट अपने खून मे आती बगावत राज ये गहरे कैसे खोलोगे
कौन है किसके साथ बांटे गए रिश्तों मे आज क्या-क्या देखकर तुम मतदान करोगे
कौन-सा दिल तलाश करोगे,यहाँ पर कुर्सी तो नही मगर बटवारे की बात जरूर रखोगे


वो हकीक़त बयाँ करता है जो तुमने तोड़ दिया, ऐसे आईने को तुम क्यूँ देखोगे
हर आईने पर दरारें हैं हर दिल पर चोट है कब तक ख़ुद के साथ ही खोट करोगे
ये भला है कि साथ नही रहता इश्वर तुम्हारे ना तो तुम उसके साथ भी ऐसा करोगे
कौन-सा दिल तलाश करोगे,टूटा हुआ आईना क्या तुम हमेशा अपने पास रखोगे ?
अक्षय-मन

रविवार, 13 जुलाई 2008

कवि



मेरी बातें मेरे शब्द तुम तो समझते हो ना
मेरा अर्थ मेरे तथ्य तुम तो समझते हो ना

देखो तो ये मोन हैं एहेसास करो तो कलरव(मधुर ध्वनि)
कवि के इस मर्म को तुम तो समझते हो ना

मानो तो कल्पनाओं में विलीन हूं ना मानो तो अक्षरों से हीन
शब्दकोष हूं या हूं शून्य तुम तो समझते हो ना

पास आओगे तो हूं मैं मदिरा दूर से बादल वो बदिरा
मन से हूं मद या हूं तन से तरुण तुम तो समझते हो ना

मूंद नयन सुनोगे तो हैं शब्दों के शंख अन्यथा व्यर्थ हैं ये व्यंग्य
शकुन(सुनना)भी हूं मैं और हूं शमन(शांति)भी तुम तो समझते हो ना

चखोगे तो हूं रसराज गर पहेनोगे तो बनू श्रृंगार
मिठास भी हूं और हूं शब्दों के हार भी तुम तो समझते हो ना

शैली से हूं मैं शूर भेद सके ना कोई शूल
वेदवाक्य भी हूं और हूं विवेक भी तुम तो समझते हो ना

है गीत भी नहीं और ना है ग़ज़ल कवि की कविता है ये सरस-सरल
तब भी सुर-ताल भी हूं मैं और हूं संगीत भी तुम तो समझते हो ना
तुम तो समझते हो ना तुम तो समझते हो ना..........अक्षय-मन

शुक्रवार, 11 जुलाई 2008

दिल -दर्द


दिल से धड़कने की गुजारिश नहीं करता

पीता हूं हर पल बहेकने की कोशिश नहीं करता



क्या करूं दर्द आँखों से ही झलक जाता है

मैं जख्म तो रखता हूं पर उनकी नुमाइश नहीं करता



हर शख्स हमदर्द नज़र आता है

बस यही एक जुल्म है अपना

मैं उनकी आजमाइश नहीं करता



चहरे को ढक रहा हूं हालातो के नकाब से

अब किसी हवा के रहेमो-करम की खुवाइश नहीं करता



मैं इंसान ही हूं धड़कते दिल पर हाथ रखकर तो देख

लेकिन अब इस दिल में ये खून भी गरदिश नहीं करता
अक्षय-मन

बुधवार, 9 जुलाई 2008

आईना


वजूद नहीं तेरा ऐ आईने हकीक़त क्यूँ बयान करता है

किसी गैर को नहीं तू खुद ही को बदनाम किया करता है

कोई तुझे कुछ नहीं समझता सिवाए एक बेजान के

फिर तू क्यूँ सबकी पहेचान बनता है

ऐ आईने हकीक़त क्यूँ बयान करता है



मेरी आँखों से मेरी मजबूरियां तू समझता रहा

चेहरा ढलता है हालातो से तू कहता है

ऐ आईने हकीक़त क्यूँ बयान करता है



मेरी गुमनामी मुझसे तू छुपाता रहा

मेरे सूनेपन को तू मेरी ही परछाइयों से ढकता है

ऐ आईने हकीक़त क्यूँ बयान करता है



मेरी बेजुबान आँखों से गिरे हैं कुछ कतरे

आंसू हैं या हैं पानी ये तू ही समझता है

ऐ आईने हकीक़त क्यूँ बयान करता है



"अक्षय" कहता है इसे पड़ा कीजिये

आईने से बहेतर कोई किताब नहीं

वो पन्ने पलकों से पलटते रहिये

जिनमे पुरानी यादों का हिसाब मिलता है

ऐ आईने तू हकीक़त क्यूँ बयान करता है
अक्षय-मन

मंगलवार, 8 जुलाई 2008

मुक्तक



१.
वक़्त ने जो करवट ली है जिंदगी के मोड़ो पर
हमने खुद अपनी पीठ रगड़ी है बेजान पड़े इन कोड़ो पर
उनसे कुछ कहे ना पाए जानकर भी अनजान खड़े रहे हम
वो तो अपने ही थे जो नमक छिड़कते रहे जख्मी पड़े उन फोड़ो पर !!
२.
बेइन्तहा दर्द को भी हमने उनका प्यार समझा
आंसू हुए जो आने को हम रो ना पाए हमने
अपनी आँखों को उनकी आँखे समझा
ढूंढ़ रहे थे ना जाने कौन से बीते लम्हों को हम
मुडकर देखा हंसी के पर्दे से ढक रखा था गमो को
अपनी आबरू समझा !!

३.
उस बुझते दीये को तुने हाथ जो दिखाया होता
मुझे मेरे अंधेरो से काश तुने बचाया होता
अब मैं मर चूका बुझ चूका उस दीये के जैसा
काश तुने मुझे उस दीये कि तरहां जलाया होता !!
४.
आज अपनी जिंदगी कि आखरी साँसे गिन रहा हूं
खामोशी,तन्हाई,गुमनामी सब तो साथ हैं मैं अकेला कहाँ हूं
लेकिन बेबस हूं क्या करूं कुछ समझ नहीं आता
कफ़न तो है पर डालने वाला कोई नहीं इसलिए
मौत से पहले खुद ही को कफ़न से ढक रहा हूं !!

शुक्रवार, 4 जुलाई 2008

अभिशापित आस्था



एक आस्था ही तो है जो बताती है
समर्पित हूं में तेरे लिए
एक जिज्ञासा ही तो है जो मुझे समझती है
सिर्फ एहेसास हूं में तेरे लिए

मुंद कर इन पलकों को स्मरण करूं में तेरा ही
ज्योत जला इन नयनो की आरती करूं तेरे लिए

अपनी इस तपस्या को व्यर्थ न जाने दूंगा कभी
इस जन्म में तेरा न हुआ तो क्या
अगले जन्म में आउंगा तुझे पाउंगा
और जीउंगा सिर्फ तेरे लिए ........

और चुपके से आकर तेरे कान में पूकरुंगा तेरे नाम को
और कहूंगा मेरा प्यार,मेरी आस्था,मेरा समर्पण
मेरी जिज्ञासा,मेरा एहेसास मेरी तपस्या है सिर्फ तेरे लिए

मैं न जनता था कि ये मेरे लिए एक भ्रम साबित होगा
पता तो तब चला जब मेरी आस्था अभिशापित हुई
उससे ये सुनकर कि तू अजनबी है मेरे लिए तू अजनबी है मेरे लिए ....

बुधवार, 2 जुलाई 2008

सच यही कोई संतुष्ट नहीं


उस पतंगे को मिला क्या दीये से प्रीत करके
वो तो अंधेरो से डरकर रौशनी
कि तरफ जा रहा था
क्या मिला उसको रोशनियों में जलके
क्या मिला उसको अंधेरो से भाग के
अपने आपको मिटा दिया
रौशनी कि चाह में
और पूछने वाला कोई नहीं
जो है उससे संतुष्टि नहीं मिल पाती ना
उस पतंगे कि तरहां भी बहुत
कुछ पाना चाहता है आदमी
शायद किसी को मिल भी जाता है
और कोई बिना कुछ पाए ही
जिंदगी की धुप से झुलस जाता है
हर रात एक इन्सान मरता है
उस पतंगे की ही तरहां
बस अंतर इतना है पतंगा
दीये की ज्योत से और
इन्सान जिंदगी की धुप से
पतंगा रौशनी की चाह में
और ये इच्छाओं की चाह में
अपना दम तोड़ देता है
संतुष्ट नहीं ना किसी को
अपने दायरे में रहना पसंद नहीं
अपनी इच्छापूर्ति के लिए सब
रावण रूप ले चुके हैं
अरे! अब इस कलयुग में
सीता माता कहाँ से लाउँ
जो एक ब्राह्मण को संतुष्ट
करने के लिए लक्ष्मण-रेखा
उलांघ गई थी!

सोमवार, 16 जून 2008

एक बेबस ग़ज़ल




रोते-रोते मेरी उम्र भी कट जाती अश्को के
इस समुन्दर में मेरी कश्ती भी संभल जाती
अब ये उम्र कैसे गुजारुं आंसुओं की तलब ने सोने न दिया


दिल में अश्को का समुन्दर है उसमे डूबा है तू
तेरे वादों के भवर में फंसी हूं मुझे उभरने न दिया


मेरे होंठो पर हंसी नहीं दिखती रूखे हैं
अश्को की बारिश इनपर नहीं गिरती
न छलके हंसी होठो पर तुने पलकों को भी भिगोने न दिया

ज़हर पीने की तो आदत थी मुझको
अमृत अश्को का मुझे पीने न दिया

रविवार, 15 जून 2008

ग़लतफहमी


आज की दुनिया ग़लतफहमी पर कायम है
अगर हुई जरा सी भी दूर ग़लतफहमी तो तीसरे विश्वयुद्ध का जन्म है

बेटे ने माँ को ग़लतफहमी का शिकार बनाया
उसकी ममता भरी आँखों पर अपने तुच्छ
चाल चरित्र का पर्दा डाल छुपाते हुए
अपने को उसका आज्ञाकारी बेटा बताया

प्रेमी ने प्रेमिका को ग़लतफहमी का शिकार बनाया
उसके समर्पण को अपने मनोरंजन का समान बनाया
दिल को खिलौना समझ तोड़ दिया
फिर प्यार को एक कालीरात समझ भूल गया

प्रजातंत्र ने प्रजा को ग़लतफहमी का शिकार बनाया
प्रजाहित का झूठा प्रण कर प्रजा को अंधेरो में रखा
खुद बन निशाचर उनके विश्वास को लूट अपनी झोली भरता रहा

यहाँ तक की भगवान् तक को नहीं छोडा
उसे भी ग़लतफहमी का शिकार बनाया
अपनी वंदना-साधना से नहीं
उनको भी पैसो का लालची समझा और खूब धन चढ़ा
अपने आप को उनका भक्त बताया
अपना विज्ञापन भगवान् से करा
अपनी कम्पनी का नाम बढाया

पाप ने पुण्य को ग़लतफहमी का शिकार बनाया
गंगा को पापो का प्रश्चित करने का स्थान बताया
पहेले खूब पाप किये फिर एक डुबकी मात्र लगा लेने से
अपने आपको स्वर्गभोगी बनाया

आज के फेशन ने मेरी संस्कृति को ग़लतफहमी शिकार बनाया
अपनी मातृभूमि का रूप न ले अपने को अमेरिकन बेटा बनाया
हाँ सही भी है अब क्या कहूं
जो अपनी माँ के दिए रूप को निराकार बोलेगा
वो मातृभूमि के रूप को कैसे स्वीकारेगा

शब्दों की इस दुनिया में सब शब्दों की गलतफ्हेमियां हैं
अपने शब्दों से बना विश्वास का खोखला कवच उड़ाकर
उनकी भावनाओ के साथ खेलना बहुतो की आदत रही है
शब्दों को निम्न-निम्न खाचों में डाल हर बार एक नया आकार दे
दिन बदले शब्दों के रूप बदले
किस पर विश्वास करूं
कौन-कौन सी गलतफ्हेमियां दूर करूं
कुछ समझ नहीं आता
बोलो अब मैं क्या करूं ?
अब मैं क्या करूं ?

बुधवार, 11 जून 2008

सपने


एक सपना क्षण भर में शायद सच हो जाये

वह कभी सपना था हकीक़त बन अचानक सामने आये

उस पल का एहेसास करके भी खुश हो लेता हूं

सपनो को साकार होने का सपना देख,

कभी-कभी मैं भी हवा में उड़ लेता हूं

ज़िन्दगी के हर दुःख,हर गम और इस

अकेलेपन को भी अपने सपनो में ही दूर कर लेता हूं

आँखों से टपके इन सपनो से अपनी प्यास बुझा लेता हूं

हाँ मैंने माना सपनो से मिलता नहीं है जीवन

लेकिन ये भी जाना सुखी जीवन का मिलता है एक आश्वासन

सपने एहेसास कराते हैं कुछ तो अपनेपन का

क्यूंकि यथार्थ तो अपना कोई हो नहीं सकता

सपने तो अमर हैं इन्हें कोई खो नहीं सकता

सपनो में हम डूब नहीं सकते फिर सपने देखना कहाँ बुरा है
आज इस युग में कोई भी सनकी हो जाये
यदि जीवन मैं कभी सपनो का सहारा न पाए

शनिवार, 7 जून 2008

कला-कलाकार,कवि-कविता


कला-कलाकार,कवि-कविता और एकमात्र कल्पना,
कर-कर्ता,कलम-कागज और एकमात्र कामना

सजाना-संवारना,संस्मरण-शब्द्सुत्र और एकमात्र साधना,
शिल्प-शिल्पी,शब्द-शैली और एकमात्र शोभा

मानक-मीनाकारी,मर्म-मन और एक मात्र ममता,
वस्तु-विचित्र,वाक्य-व्यंजना और एकमात्र वंदना
अक्षय-मन

गुरुवार, 5 जून 2008

अपराजिता


कभी आतिश कभी बारिश कभी संगनी बन जाती है
हार से जो ह्रास न हो अपराजिता कहेलाती
है अपराजिता , अपराजिता

अपनी उक्ति पर हो जो अटल
अपने शब्दों पर हो जो अविचल
सबसे बढकर हो जिसकी अस्मिता
वो कहेलाये अपराजिता,अपराजिता

संघर्ष से जो हो न तंद्रा
जीत,लहू की जो पी ले मदिरा
विजय होने की जिसमे हो तम्यता
वो कहेलाये अपराजिता,अपराजिता

अपने हो कम उसके ,लाखों हो दुश्मन जिसके
समय से हार न माने वो चलती रहे पूरी लगन जो
तेज-दीप्ति दर्पण हो हर नारी का, रूप हो जिसका आदर्शता
तभी तो वो कहेलाएगी अपराजिता,अपराजिता

अब नही झुकना है मुझे चाहें करो कितने भी सितम
अब मर-मर के ना जीना मुझको हुआ है मेरा पुनर्जन्म
अब नही मानुंगी मैं हार,नही हूं अब मैं तेरी अभाग्यता
अब कहोगे तुम ख़ुद मुझको अपराजिता अपराजिता !!

बुधवार, 4 जून 2008

अगर शब्द


अगर शब्द दुकान पर बिकते
तो शायद लोग खुश होते
क्यूंकी वो सिर्फ़ लोगो के
हित मैं ही अपने शब्दो को खर्च करते

अगर शब्द गूंजते होते
तो शायद लोग खुश रहते
शब्दों की एकमात्र गूंज से
अंधे भी सही राह पर आ जाते

अगर शब्द मदिरा होते
तो शायद लोग खुश रहते
क्यूंकी वो फिर शब्द नशे मैं डूब
कम से कम सत्य बात तो कहते

अगर शब्द रश्मि होते
तो शायद लोग खुश होते
क्यूंकी अपने दिए वचनो से किसी को
अंधकार मैं तो ना रखते
अगर शब्द

रीति,मज़बूरी या कहेलो कठपुतली



जब बाँहों में होकर भी मिलता नहीं मीत
जब भीरू ह्रदय बन जाये नवनीत
तब हालातों के सुर से पिरोया जायेगा एक दर्द भरा गीत

है वो लीन किसी की धुन मैं लीपकर बलिदानों का लेप
है वो मद किसी के मर्म में मोन बनकर बनी आखेट

गर करेगी मनमानी वो लगायेंगे उसपर सब आक्षेप
सोचकर यही बैठी है चुप लगें हैं उसपर कुछ अंकुश

बनी है वो अनुक्रमणिका उन हाथो से
हर पल अपमानित करते उसको जो अपनी बातों से

अमिट-रूप लेकर वो बनी बनी हुई अपाहिज क्यूँ ?
अमुक की वंदना की उसने फिर फल की कामना करती क्यूँ ?

रीति,मज़बूरी या कहेलो किसी के हाथों की कठपुतली,
बन आहुति श्रंगार करे अपने हाथो अपनी अर्थी

सोमवार, 2 जून 2008

रूप



महफिल की झूठी चाह में भूल गई तनहाइयों को

अपना बनाया,पीछे छोड़ दिया भूल गई परछाइयों


सपने छलके आँखों से सुला दिया इच्छाओं को सब
बन आशा आवेग की बुला लिया अराजक्ताओं को सब

ये अवैध अवरोह और अब अवांछित है जीवन मेरा

इस तनाव की तरुणता से तृप्त हुआ अब तन मेरा

ये अविकल अवयव अब अवसान है मेरा

दुखो के दर्पण में दमक गया अब दिन है मेरा

अब क्या

अब मैं महफिल से मलिन हूं

सहा बहुत अब मुक्त होना चाहती हूं

अब फिर परछाइयों की पनाह ले परिमार्जन होना चाहती हूं मैं

हो हरित अब,हर्ष,हास्य,ह्रदय के साथ होश लेना चाहती हूं मैं

हो मार्मिक अब,ममता,मानवता,मित्र,माँ,मन-मंदिर

के मिलन से बना मंगलसूत्र पहेन महिला रूप लेना चाहती हूं मैं

रूप बदले मेरे मेरी परस्थियों से अब एक ही रूप धारण करना चाहती हूं मैं

बस एक ही रूप धारण करना चाहती हूं मैं

मंगलवार, 27 मई 2008

रिश्ते या दर्पण


जब अश्को के लावे से एक चिता जलती है
जब बिना बिहाई ख़ुशी विधवा होती है

तब मन घिली मिटटी और मजबूरियां बेरहम हाथ बनते हैं
ज़िन्दगी कि हर कसोटी पर परखे जाने के लिए बेढंग आकार लेते हैं

उस पल मन क्या कहता है
क्या कुछ मजबूरियों ,परेशानियों को
ज़िन्दगी का नियम समझकर
अपने अन्दर दबाके रखता है
या फिर कठपुतली कि तरहां इधर - उधर नाचता रहता है

जब मन कि आँखे रिश्तों के दर्पण मैं अपने आप को देखती हैं
अपने अर्पण से समर्पण जब श्रृंगार करती हैं
और इस श्रृंगार से रिश्ते -रुपी दर्पण को लुभाने कि नाकाम कोशिश करती हैं

इतना सब कुछ करने के बाद भी ये दर्पण हमें वोही दिखता है जो हम देखते हैं

हंस कर देखते हैं तो ख़ुशी दिखाई पड़ती है
आंसू बहाकर देखते हैं तो दुःख और तन्हाई मालूम पड़ती है
और ये दर्पण भी जरा सी चोट या दबाब पड़ने पर चकनाचूर हो जाता है

और अपने अन्दर समाई पुरानी यादों को इधर -उधर बिखेर जाता है

अगर उन यादों को समेटने कि कोशिश करता हूं
तो अपने हाथ खून मैं रेंज दिखाई देते हैं
यादों के कुछ अनसुलझे टुकड़े अपने ही दिल मैं गड़ते हुए दिखते हैं

उस पर भी हम ही को कसूरवार साबित क्या जाता है
मुजरिम समझकर कटघरे में खडा क्या जाता है

सफाई देने पर इल्जाम हम पर ही लगाये जाते हैं
क्यूंकि
इस अदालत में भी गवहा झूठे और मतलबी हुआ करते हैं

अपनी हर दलील में रिश्तों कि बदनामी क्या करते हैं
और
फैसला सुनाये जाने पर
एक बार फिर से समर्पण -रुपी फांसी से हम दम तोड़ते दिखते हैं

वाह ! ये भी कितने अजीब रिश्ते हुआ करते हैं

सोमवार, 19 मई 2008

हस्त कला

हस्त कला के ये मंत्र
निर्जीव को भी जीवित करने के ये तंत्र
मुझे भी सिखाओ
दिल की भावनाये
कुछ अक्षय अकिर्तियाँ
मन की जिज्ञासाएं
अपनी ये हस्त कलाएं
मुझे भी बतलाओ
मोन मैं भी अमोनता
एक निर्जीव वस्तु से दिल की बात कहलवाने की तुम्हारी क्षमता हमें भी समझाओ
इनकी अमिट मुस्कुराहट से दिल लुभाती इस बनावट से
हमारी भी पहेचान कराओ
अश्रुओ से मिट्टी के मिलन का
दर्द मैं ढलकर हँसते जीवन का
एहेसास हमें भी तो कराओ

बुधवार, 14 मई 2008

विकलांग बचपन की वंदना


सपनो में डूबी आँखों में वो बचपन याद आता है मुझको

दिल में डूबी उन यादों का दर्पण याद आता है मुझको

हर किसी के दिल में अपने बचपन की याद समाई होती है

जीवन की रहस्यमई पहेली में बचपन को दोबारा जीने
की आस छुपी दिखाई देती है मुझको

बचपन के रिश्ते बड़े होने पर कुछ और ही दिखाई देते हैं

ज़िन्दगी की हर कसौटी पर परखे जाने के बाद भी कमजोर दिखाई देते हैं

:> ऐसा भी बचपन है जो कभी दिखाई नहीं देता

एक ऐसा भी बचपन है जो कभी अंगडाई नहीं लेता

एक ऐसा भी बचपन है जो प्यार के लिए तरसता है

एक ऐसा भी बचपन है जो उम्मीद के सहारे जीता है

क्यूंकि

उसका बचपन उलझा हुआ है ज़िन्दगी की पहेली सुलझाने में

क्यूंकि

उसका बचपन झुलसा हुआ है हवस की आग में

क्यूंकि

उसका बचपन सिमटा हुआ है फुटपाथ के अंधेरो में

क्यूंकि

उसका बचपन लिपटा हुआ है अपने अनसुलझे सवालो में

इस बचपन को दोबारा बचपन जीने की कोई आस नहीं

इस बचपन को उन रिश्तो से कोई मतलब नहीं

जो हर बार किसी न किसी कसौटी पर परखे जाते हैं

और जरा सी नज़र अंदाजी पर तोड़ भी दिए जाते हैं

मंगलवार, 13 मई 2008

कुछ भी कहे सकते हो


मेरी आस्था मेरा विश्वास हो तुम
मेरे जीवन का अनुराग हो तुम

मेरी कविताओं का श्रंगार हो तुम
मेरे शब्दों की अन्भुझी प्यास हो तुम

मैं सीप मेरा मोती हो तुम
मैं आकाश मेरी धरती हो तुम

मैं आगाज़ मेरा अंजाम हो तुम

मैं सवाल मेरा जवाब हो तुम
मैं पराजित मेरी आपराजिता हो तुम

मैं धड़कन, धड़कन का एहेसास हो तुम
मैं विकृत मेरी शक्ति हो तुम

मैं बागवान मेरा बाग़ हो तुम

>तुम्हे भी नहीं पता तुम क्या हो
तुम्हारा क्या स्वरूप है तुम्हारे कई रूप हैं
बस उनको देखने का नजरिया अलग अलग है....

तुम माँ,बहिन,बेटी,और पत्नी बनकर अटूट रिश्तो की अखंड ज्योत बन जाती हो
और उन रिश्तों को निभाने के लिए हर उस बलिदान को जो तुमने दिया है अपना फ़र्ज़ समझती हो

मगर एक बलिदान और भी है
इस नग्न समाज मैं एक और रूप भी है तुम्हारा
वो रूप है वेश्या का

जो हर बलिदान से बड़ा है आदमी की कभी न भुजने वाली हवस तुम्हारे दरवाजे पर ही दस्तक देती है

मुझे तेरे इस बलिदान से भी रक्षा-रुपी कवच नज़र आता है...
जो हर नारी की रक्षा मैं माँ दुर्गा का आशीर्वाद नज़र आता है

मगर तेरे इस बलिदान को भी बुरी नज़र से देखा जाता है
और तुझे एक गाली समझा जाता है

सोमवार, 12 मई 2008

तू मेरा नहीं पराया है

एक तमन्ना है तेरी पलके अपनी पलकों से मिलाने की
एक आरजू है तेरे आंसू अपनी पलकों पे सजाने की

एक कोशिश है तेरे गम अपने दिल मैं छुपाने की
एक साजिश है तेरी खुशियाँ तुझको लोटाने की
मगर
तेरी नज़र को उसका इंतज़ार आज भी है
गमो के समुन्दर मैं डूबने का अरमान तुझे आज भी है

अपने दिल के ज़ज्बातो को छुपाने की कोशिश तुझे आज भी है
उस पत्थर दिल का क्या जो तेरे मॅन को मोम समझता रहा

उस जलती लौ का क्या जो तुझे हमेशा पिग्लाती रही
उस बेरहम हंसी का क्या जो तेरे सुख मैं भी दुःख का एहेसास दिलाती रही

उस बदनसीब तकदीर का क्या जो तुझे तेरे अंधेरो से वाकिफ कराती रही
क्यूँ अपनी ही परछाइयों के पीछे भाग रही है तू
क्यूँ अपने बेदाग दामन पर दाग लगा रही है तू

तुझ पर अपनी खुशियाँ निसार करने को दिल चाहता है
तुझ पर अपने विश्वास को समर्पित करने को दिल चाहता है

तेरी आँखों से तेरी यादों को चुराने की आस आज भी है
अपने सपनो को तेरी आखो से देखने का इंतज़ार आज भी है
मगर
तेरी नज़र को उसका इंतज़ार आज भी है आज भी है...........