बुधवार, 13 अगस्त 2008

आत्म-सत्य


आत्मा को त्याग शरीर किस तृष्णा मे लीन है
मोक्ष ना मिल पाया इसको ये कितना मलिन है !

रोम-रोम जब रम जाता
रूपान्तर हो दूसरा रंग जब चढ़ जाता
एक जन्म मे दो बार तू जन्मा है
पहले नाम था तेरा काल्पनिक जीवन
अब परिमार्जित आत्मा है !

लौकिक द्रष्टि से देखूं तो
पता चले कितने पाप किए
हर सवाल का उत्तर आता मौन
अन्तिम पल पश्चाताप की आग मे जले !

हरण किया उस आबरू का तुने
जो तुझमे मे ही बसती थी
हुआ ना जाने तुझको किया
ये बार-बार कहती पनपती थी कि
मैं तेरा ही अभिमान हूं तू मुझको ही सताएगा
मुझको तुने लूटा तो लूटा ,तेरी हो क्यूँ दुसरो से लूटती थी !

आत्मा सो गई है आबरू रो रही है
अँधेरा जाग गया रौशनी खो गई है
मैं क्यूँ अब तक ना समझ पाया था
देख आईना तो ये जाना मेरी आंखें मेरी ही
आँखों से पर्दा कर रही है !

अब ख़ुद से नज़रे मैं ना मिला पाउं
हकीक़त मे पले आईने से मैं घबराउं
परछाइयों के पीछे मैं भागू लेकिन
उनको कभी मैं छुं ना पाउं !


इन सपनो की वादी में आखें मेरी कल्पनाओं की उड़ान भरती हैं
इन नयनो की सीपी में आशाओं के मोती हैं

चित्त-चरित्र तथा चेकित(ज्ञानी) की चेतना
वस्तु-विचित्र तथा वाक्यों की व्यंजना
आकांक्षाओं की पूर्ति कर नए रूप को दर्शाती है !

भद्र-भला तथा भव्य भविष्य को भांपना
ममत्व-मनोरम तथा मर्यादा को मांपना
दुखो को दूर कर दबंग,वैभवशाली बनाती है !

शालीन-शमन(शान्ति) तथा शैशव(बचपन) सा शरमाना
कथनी-करनी तथा कुशल-कृतघ्नता की कल्पना
स्वार्थी ना बना हित्तोप्देश सुनाती हैं !

सजीव-संगति तथा सप्रेम संचित कर सदन सजाना
घनिष्ठ -घरेलु तथा एक घूंट में घमंड सारा पी जाना
ऐसे रिश्ते ऐसे नाते अक्षय-बंधन को अमृत पिलाती हैं !!

मंगलवार, 12 अगस्त 2008

जीवन



अब तुझसे कैसे कुछ कहूं
क्या तेरा है क्या मेरा है
कौनसी डगरिया पर जाना है
ना तू कुछ पूछे ना मैं बोलूं

बस तेरी ही आस्था अपने मन में बसाये
मैं तेरा ही जीवन व्यतीत कर रहा हूं
ना कुछ देकर जाउंगा ना कुछ लेकर आया हूं
मैं हूं तू या तू बन जाउं मैं, हैं एक मन में समाये

क्या विद्वान् क्या अज्ञानी सब हैं तो प्राणी
क्यूँ बने स्वार्थी, क्या ज्ञान भी कोई लुट पायेगा
दे दे इसे ना तो तेरा सारा ज्ञान व्यर्थ जाएगा
भेद-भावः क्यूँ करते फिर कैसी है इनकी वाणी

अरे! तेरे ये लोचन भरे हैं अश्रु और गम
तू कब तक ये अनमोल मोती लुटायेगा
लालची है दुनिया तू कब समझ पायेगा
छुपा इन मोतियों को ना तो लुटा जाएगा हर दम

मैं तेरा ही रूप हूं तेरा ही एक अंश हूं
बस मैं रात हूं, तू है सुबह से
बस मैं एक पल हूं, तू है समय से
ये जानकर भी अनजान मैं हूं,गुमनाम मैं हूं

आध्यात्मिक रूप लिए हूं परमात्मा की छबी हूं
ओ!बेसुध अशांति तू क्या भेद पाएगी मुझको
बता मुझसे क्या बिल्कुल डर नही तुझको
मैं मौन शस्त्र का धारक तेरा विनाशक हूं

क्या बुरा है क्या भला है सब जीवन के संग चला है
ना तू ये समझा पायेगा ना मैं कुछ समझ पाउंगा
जीवन के तराजू मे कर्म को तोल कर ही कुछ दे पाउंगा
सबको कुछ ना कुछ मिला है कोई ना खाली हाथ खड़ा है अक्षय-मन

बुधवार, 6 अगस्त 2008

कुछ अपना ही....अपनी कहानी अपनी जुबानी


दाग की यही खासियत है ना जख्म नज़र आता है
ना दर्द की कसक जाती है
झुलसी यादों की भी यही फ़ितरत है ना कोई मरहम लगाता है
ना झुलस की दहक जाती है

क्यूँ खुरच रहे हो मेरे उन जख्मो को हालत अब ये है
ना खून बहता है ना आँख नम हो पाती है
दर्द मे घुटने की मेरी बचपन से आदत है
अब ना बचपन रोता है ना जवानी जाम पी पाती है

एक घूंट मे पी गया बचपन के सारे गमो को मैं
अब ना जहर असर करता है ना जिंदगी दम भरती है
खुश-किस्मत हूं सबकी नफरत खैरात मे मिली मुझे
अब ना हँसना आता है और ना खुशियाँ रहम करती हैं

वक्त कहाँ दवा बना? वो यादें उम्र भर जख्मी करती रही
ना उन अंधेरो मे खोये लम्हों का हिसाब मिलता है ना कोई रौशनी थम पाती है
सिसकता-तड़पता रहा रात के अंधरे सन्नाटों मे
अब ना खौफ जहन से जाता है और ना सोता हूं क्यूंकि ये नींद भी सहम जाती है


आईना क्या देखूं अब ख़ुद ही आईना बन गया हूं
ना हकीक़त से डर लगता है और ना आँखें गम छुपा पाती हैं
अब तक बदकिस्मती मुझे तलाशती रही मै किसकी तलाश करूं
ना किसी का प्यार 'अक्षय' बनता है ना कोई नई उम्मीद जन्म ले पाती है अक्षय-मन

सोमवार, 4 अगस्त 2008

ढाई आखर प्रेम के


वो पावन सा है दिल जिसका जो मोजों की रवानी है
वो सावन सा है मन जिसका जो ओंसो की जवानी है
ना ये तेरी कहानी है ना ये मेरी कहानी है
ढाई आखर प्रेम के इतनी बात बतानी है
ये प्रेम कहानी है!
मैं तुझसे दूर हूं लेकिन एहेसासों में मैं जीता हूं
तू गर है मदिरा तो मैं मदिरा की आतुरता हूं
कहाँ जाएगा तू बचके इतना तू बतला दे
है अगर समुंदर तू मैं उसका अहाता हूं
कभी अश्को का बादल था
अब खुशियों का सागर हूं
कभी तिनको का आँचल था
अब महफिलों की गागर हूं !
किसी का तू दीवाना था अब दुनिया तेरी दीवानी है
मानो तो प्रेम ही जीवन न मानो मनमानी है
ना ये तेरी कहानी है ना ये मेरी कहानी है
ढाई आखर प्रेम के इतनी बात बतानी है
ये प्रेम कहानी है
ये प्रेम कहानी है!!


शनिवार, 2 अगस्त 2008

आध्यात्मिक प्रेम



जाने किस चिन्तन में
डूबा है ये अज्ञात मन ,
हो-हो व्याकुल ये तड़पे
जर्जर-जर्जर हो सारा जीवन !

किस बात की पीड़ा है तुझको
क्यूँ ढलता तेरा ये यौवन ,
तेरे नयनो की ज्योति से
अब क्यूँ न हो मेरा मन मोहन !

मर-मर जाती है अब तेरे
होठो से आती वो बतियाँ,
ये बदला सा क्यूँ रूप है तेरा
क्यूँ खिलने से पहले मुरझाई कलियाँ !

तेरी इस व्याकुलता से
जागे मेरी सोई रतियाँ ,
पहचाने ना तू मुझको भी
क्यूँ खो दी तुने सारी सखियाँ !

कौन-सा रोग है तुझको हुआ
मुझको अब कुछ सूझे ना ,
नयनो से टपके अश्रुओं को
षधि समझ तू पी लेना !

मैं तुझको क्यूँ छु ना पाउं
क्यूँ मेरी पुकार तू सुनती ना ,
बन पगला आगे-पीछे मैं डोलूं
तू मुझको दिख-दिख जाए
मैं तुझको क्यूँ दिखता ना !!