शुक्रवार, 22 जुलाई 2011

जमाना


इस ज़माने को मैं कैसे जमाना कह दूँ 
जमाना तो वो था जिसमे हम जवान हुए

वो मीठे बोल में छुपी शरारतें और वो सुहावनी रातें 
वो चाँद की ही गोद थी जिसमे हम जवान हुए 

अब कहाँ सुनता हूं मैं वो पाजेब की छन-छन 
मिटटी का वो आगन था जिसमे हम जवान हुए 

ना पडोसी से है कोई रिश्ता ना अपनों से है नाता 
वो गली-कूचे थे जिसमे हम जवान हुए....

इस ज़माने को मैं कैसे जमाना कह दूँ 
जमाना तो वो था जिसमे हम जवान हुए 
अक्षय-मन 


बेखुदी


बेखुदी में भी क्या खुमारी है 

ये ज़िन्दगी अब कहाँ हमारी है 

मर तो जाते हम बरसो पहले 
भूल जाते गर,ये जान तुम्हारी है 

                                         बेखुदी में भी क्या खुमारी है 
ये ज़िन्दगी अब कहाँ हमारी है 

आहिस्ता से इन धडकनों को छुओ 
दिल को मेरे कोई बीमारी है

लुटने को दर पे खड़ा तेरे "अक्षय"
कहने को तो ये भिखारी है...

                                           बेखुदी में भी क्या खुमारी है 
ये ज़िन्दगी अब कहाँ हमारी है 
अक्षय मन