सोमवार, 16 जून 2008

एक बेबस ग़ज़ल




रोते-रोते मेरी उम्र भी कट जाती अश्को के
इस समुन्दर में मेरी कश्ती भी संभल जाती
अब ये उम्र कैसे गुजारुं आंसुओं की तलब ने सोने न दिया


दिल में अश्को का समुन्दर है उसमे डूबा है तू
तेरे वादों के भवर में फंसी हूं मुझे उभरने न दिया


मेरे होंठो पर हंसी नहीं दिखती रूखे हैं
अश्को की बारिश इनपर नहीं गिरती
न छलके हंसी होठो पर तुने पलकों को भी भिगोने न दिया

ज़हर पीने की तो आदत थी मुझको
अमृत अश्को का मुझे पीने न दिया

रविवार, 15 जून 2008

ग़लतफहमी


आज की दुनिया ग़लतफहमी पर कायम है
अगर हुई जरा सी भी दूर ग़लतफहमी तो तीसरे विश्वयुद्ध का जन्म है

बेटे ने माँ को ग़लतफहमी का शिकार बनाया
उसकी ममता भरी आँखों पर अपने तुच्छ
चाल चरित्र का पर्दा डाल छुपाते हुए
अपने को उसका आज्ञाकारी बेटा बताया

प्रेमी ने प्रेमिका को ग़लतफहमी का शिकार बनाया
उसके समर्पण को अपने मनोरंजन का समान बनाया
दिल को खिलौना समझ तोड़ दिया
फिर प्यार को एक कालीरात समझ भूल गया

प्रजातंत्र ने प्रजा को ग़लतफहमी का शिकार बनाया
प्रजाहित का झूठा प्रण कर प्रजा को अंधेरो में रखा
खुद बन निशाचर उनके विश्वास को लूट अपनी झोली भरता रहा

यहाँ तक की भगवान् तक को नहीं छोडा
उसे भी ग़लतफहमी का शिकार बनाया
अपनी वंदना-साधना से नहीं
उनको भी पैसो का लालची समझा और खूब धन चढ़ा
अपने आप को उनका भक्त बताया
अपना विज्ञापन भगवान् से करा
अपनी कम्पनी का नाम बढाया

पाप ने पुण्य को ग़लतफहमी का शिकार बनाया
गंगा को पापो का प्रश्चित करने का स्थान बताया
पहेले खूब पाप किये फिर एक डुबकी मात्र लगा लेने से
अपने आपको स्वर्गभोगी बनाया

आज के फेशन ने मेरी संस्कृति को ग़लतफहमी शिकार बनाया
अपनी मातृभूमि का रूप न ले अपने को अमेरिकन बेटा बनाया
हाँ सही भी है अब क्या कहूं
जो अपनी माँ के दिए रूप को निराकार बोलेगा
वो मातृभूमि के रूप को कैसे स्वीकारेगा

शब्दों की इस दुनिया में सब शब्दों की गलतफ्हेमियां हैं
अपने शब्दों से बना विश्वास का खोखला कवच उड़ाकर
उनकी भावनाओ के साथ खेलना बहुतो की आदत रही है
शब्दों को निम्न-निम्न खाचों में डाल हर बार एक नया आकार दे
दिन बदले शब्दों के रूप बदले
किस पर विश्वास करूं
कौन-कौन सी गलतफ्हेमियां दूर करूं
कुछ समझ नहीं आता
बोलो अब मैं क्या करूं ?
अब मैं क्या करूं ?

बुधवार, 11 जून 2008

सपने


एक सपना क्षण भर में शायद सच हो जाये

वह कभी सपना था हकीक़त बन अचानक सामने आये

उस पल का एहेसास करके भी खुश हो लेता हूं

सपनो को साकार होने का सपना देख,

कभी-कभी मैं भी हवा में उड़ लेता हूं

ज़िन्दगी के हर दुःख,हर गम और इस

अकेलेपन को भी अपने सपनो में ही दूर कर लेता हूं

आँखों से टपके इन सपनो से अपनी प्यास बुझा लेता हूं

हाँ मैंने माना सपनो से मिलता नहीं है जीवन

लेकिन ये भी जाना सुखी जीवन का मिलता है एक आश्वासन

सपने एहेसास कराते हैं कुछ तो अपनेपन का

क्यूंकि यथार्थ तो अपना कोई हो नहीं सकता

सपने तो अमर हैं इन्हें कोई खो नहीं सकता

सपनो में हम डूब नहीं सकते फिर सपने देखना कहाँ बुरा है
आज इस युग में कोई भी सनकी हो जाये
यदि जीवन मैं कभी सपनो का सहारा न पाए

शनिवार, 7 जून 2008

कला-कलाकार,कवि-कविता


कला-कलाकार,कवि-कविता और एकमात्र कल्पना,
कर-कर्ता,कलम-कागज और एकमात्र कामना

सजाना-संवारना,संस्मरण-शब्द्सुत्र और एकमात्र साधना,
शिल्प-शिल्पी,शब्द-शैली और एकमात्र शोभा

मानक-मीनाकारी,मर्म-मन और एक मात्र ममता,
वस्तु-विचित्र,वाक्य-व्यंजना और एकमात्र वंदना
अक्षय-मन

गुरुवार, 5 जून 2008

अपराजिता


कभी आतिश कभी बारिश कभी संगनी बन जाती है
हार से जो ह्रास न हो अपराजिता कहेलाती
है अपराजिता , अपराजिता

अपनी उक्ति पर हो जो अटल
अपने शब्दों पर हो जो अविचल
सबसे बढकर हो जिसकी अस्मिता
वो कहेलाये अपराजिता,अपराजिता

संघर्ष से जो हो न तंद्रा
जीत,लहू की जो पी ले मदिरा
विजय होने की जिसमे हो तम्यता
वो कहेलाये अपराजिता,अपराजिता

अपने हो कम उसके ,लाखों हो दुश्मन जिसके
समय से हार न माने वो चलती रहे पूरी लगन जो
तेज-दीप्ति दर्पण हो हर नारी का, रूप हो जिसका आदर्शता
तभी तो वो कहेलाएगी अपराजिता,अपराजिता

अब नही झुकना है मुझे चाहें करो कितने भी सितम
अब मर-मर के ना जीना मुझको हुआ है मेरा पुनर्जन्म
अब नही मानुंगी मैं हार,नही हूं अब मैं तेरी अभाग्यता
अब कहोगे तुम ख़ुद मुझको अपराजिता अपराजिता !!

बुधवार, 4 जून 2008

अगर शब्द


अगर शब्द दुकान पर बिकते
तो शायद लोग खुश होते
क्यूंकी वो सिर्फ़ लोगो के
हित मैं ही अपने शब्दो को खर्च करते

अगर शब्द गूंजते होते
तो शायद लोग खुश रहते
शब्दों की एकमात्र गूंज से
अंधे भी सही राह पर आ जाते

अगर शब्द मदिरा होते
तो शायद लोग खुश रहते
क्यूंकी वो फिर शब्द नशे मैं डूब
कम से कम सत्य बात तो कहते

अगर शब्द रश्मि होते
तो शायद लोग खुश होते
क्यूंकी अपने दिए वचनो से किसी को
अंधकार मैं तो ना रखते
अगर शब्द

रीति,मज़बूरी या कहेलो कठपुतली



जब बाँहों में होकर भी मिलता नहीं मीत
जब भीरू ह्रदय बन जाये नवनीत
तब हालातों के सुर से पिरोया जायेगा एक दर्द भरा गीत

है वो लीन किसी की धुन मैं लीपकर बलिदानों का लेप
है वो मद किसी के मर्म में मोन बनकर बनी आखेट

गर करेगी मनमानी वो लगायेंगे उसपर सब आक्षेप
सोचकर यही बैठी है चुप लगें हैं उसपर कुछ अंकुश

बनी है वो अनुक्रमणिका उन हाथो से
हर पल अपमानित करते उसको जो अपनी बातों से

अमिट-रूप लेकर वो बनी बनी हुई अपाहिज क्यूँ ?
अमुक की वंदना की उसने फिर फल की कामना करती क्यूँ ?

रीति,मज़बूरी या कहेलो किसी के हाथों की कठपुतली,
बन आहुति श्रंगार करे अपने हाथो अपनी अर्थी

सोमवार, 2 जून 2008

रूप



महफिल की झूठी चाह में भूल गई तनहाइयों को

अपना बनाया,पीछे छोड़ दिया भूल गई परछाइयों


सपने छलके आँखों से सुला दिया इच्छाओं को सब
बन आशा आवेग की बुला लिया अराजक्ताओं को सब

ये अवैध अवरोह और अब अवांछित है जीवन मेरा

इस तनाव की तरुणता से तृप्त हुआ अब तन मेरा

ये अविकल अवयव अब अवसान है मेरा

दुखो के दर्पण में दमक गया अब दिन है मेरा

अब क्या

अब मैं महफिल से मलिन हूं

सहा बहुत अब मुक्त होना चाहती हूं

अब फिर परछाइयों की पनाह ले परिमार्जन होना चाहती हूं मैं

हो हरित अब,हर्ष,हास्य,ह्रदय के साथ होश लेना चाहती हूं मैं

हो मार्मिक अब,ममता,मानवता,मित्र,माँ,मन-मंदिर

के मिलन से बना मंगलसूत्र पहेन महिला रूप लेना चाहती हूं मैं

रूप बदले मेरे मेरी परस्थियों से अब एक ही रूप धारण करना चाहती हूं मैं

बस एक ही रूप धारण करना चाहती हूं मैं