सोमवार, 16 जून 2008

एक बेबस ग़ज़ल




रोते-रोते मेरी उम्र भी कट जाती अश्को के
इस समुन्दर में मेरी कश्ती भी संभल जाती
अब ये उम्र कैसे गुजारुं आंसुओं की तलब ने सोने न दिया


दिल में अश्को का समुन्दर है उसमे डूबा है तू
तेरे वादों के भवर में फंसी हूं मुझे उभरने न दिया


मेरे होंठो पर हंसी नहीं दिखती रूखे हैं
अश्को की बारिश इनपर नहीं गिरती
न छलके हंसी होठो पर तुने पलकों को भी भिगोने न दिया

ज़हर पीने की तो आदत थी मुझको
अमृत अश्को का मुझे पीने न दिया

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

टिप्पणी प्रकाशन में कोई परेशानी है तो यहां क्लिक करें..