उस पतंगे को मिला क्या दीये से प्रीत करके
वो तो अंधेरो से डरकर रौशनी
कि तरफ जा रहा था
क्या मिला उसको रोशनियों में जलके
क्या मिला उसको अंधेरो से भाग के
अपने आपको मिटा दिया
रौशनी कि चाह में
और पूछने वाला कोई नहीं
जो है उससे संतुष्टि नहीं मिल पाती ना
उस पतंगे कि तरहां भी बहुत
कुछ पाना चाहता है आदमी
शायद किसी को मिल भी जाता है
और कोई बिना कुछ पाए ही
जिंदगी की धुप से झुलस जाता है
हर रात एक इन्सान मरता है
उस पतंगे की ही तरहां
बस अंतर इतना है पतंगा
दीये की ज्योत से और
इन्सान जिंदगी की धुप से
पतंगा रौशनी की चाह में
और ये इच्छाओं की चाह में
अपना दम तोड़ देता है
संतुष्ट नहीं ना किसी को
अपने दायरे में रहना पसंद नहीं
अपनी इच्छापूर्ति के लिए सब
रावण रूप ले चुके हैं
अरे! अब इस कलयुग में
सीता माता कहाँ से लाउँ
जो एक ब्राह्मण को संतुष्ट
करने के लिए लक्ष्मण-रेखा
उलांघ गई थी!
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