सोमवार, 26 जनवरी 2009

समंदर!!!


ये मेरा दिल है समंदर देखो
ये भी रोता है छूकर देखो !

पत्थरों से दोस्ती की सजा
लहरों से तुम पूछकर देखो !

तन्हाईयां फेली हैं मीलों तक
दो पल तुम ठहरकर देखो !

होसलों पर गर अपने हो यकीन
समंदर पर तुम चलकर देखो !

गहराईयों की तासीर गर मालूम न हो
मेरे दिल में तुम उतरकर देखो !

अक्षय-मन


रविवार, 18 जनवरी 2009

क्या खोकर वापस आ जाते हैं ???

कभी-कभी बिन बरसे बादल जाते हैं
एक आँख में आंसू कम आ जाते हैं

जवाब
मांगता है तू जब भी मेरे अश्को का
मेरे दर्द तुझको,कम क्यूँ नज़र आ जाते हैं ?

बचपन मुझसे खेल गया कुछ ऐसे खेल
तमाशा तक़दीर का देखने लोग आ जाते हैं

तस्वीरों में ढूंढ़ता हूं ख़ुद की तस्वीर को
हर तस्वीर में वो नज़र आ जाते हैं

शिव का रूप देखा जिसमे वो शिवांगी बन गया
प्रार्थना-पूजा,वंदना-दुआ वो सबमे आ जाते हैं

अनमोल हूं कीमती हूं कुछ ऐसा-वैसा कहा था तुमने
खो दिया फिर क्यूँ तुमने क्या खोकर वापस आ जाते हैं ??
क्या खोकर वापस आ जाते हैं ???

अक्षय-मन

शुक्रवार, 16 जनवरी 2009

मैं भी नही जानता तू भी नही जानता

फासले हैं इतने कि उसे देखा नही कभी,एहसासों के दरमियाँ
बीच की दूरी को,मैं भी नही जानता तू भी नही जानता

मुझे तो जीना है,जीने की आदत जो है पुरानी
मौत से पहली मुलाकात कैसी होगी,
मैं भी नही जानता तू भी नही जानता

रोजाना आते हैं मेरी छत पर,वो प्यास बुझाते बादल
कितनी प्यास बुझी है,कितनी प्यास लगी है
मैं भी नही जानता तू भी नही जानता

किताब-ए-कातिब में पन्नो का हिसाब तो है,प्यार का नही
किन-किन लम्हों में,प्यार का हिसाब लिख बैठे
मैं भी नही जानता तू भी नही जानता
कातिब=लेखक

अक्षय-मन

शनिवार, 10 जनवरी 2009

ग़ज़ल को तो पूरा प्यार मिला गज़लकार को भी थोड़ा प्यार दें

इंतज़ार का एक लम्हा भी उन्हें साल लगता है
उनके लिए हम सदियाँ भी एक लम्हे मे गुजार दें

फिजाओं को खबर थी तो तेरी हम बेखबर हैं तो क्या
आओ इन हवाओं से ही सही तेरी जुल्फ आज संवार दें

ये ज़मीं,ये आसमां दिखते हैं किसी जन्नत से कम क्या ?
जिगर देख मेरा आज तोहफे मे तुझे ज़हान-ए-बहार दें

जुस्तजू तेरी है तेरे ही जहान में और मैं पगला तुझे ढूंढ़ता
फिरा मिला तू मुझमे ही बनके मेरा खुदा दुआए शुमार दें

शहर की इन गलियों मे तुझे देख मेरे कदम क्यूँ बहक जाते हैं?
तू कोई ऐसी दवा दे मुझको जो तेरी निगाहों का खुमार उतार दें
(खुमार = नशा)
कभी
आती है उनकी याद तो तस्वीर न देखा कर आखें बंद कर
नाम ले उनका फिर देख रूह भी उनकी तुझे शौक से दीदार दें

कुछ शब्द,कुछ अल्फाज़ कहीं दिलों की बात"अक्षय"तो कहीं भड़ास
ग़ज़ल को तो पूरा प्यार मिला,गज़लकार को भी थोड़ा प्यार दें :) :)
अक्षय-मन

गुरुवार, 8 जनवरी 2009

हर अश्क में है अक्स तेरा


मैं शक करता रहा खुद के ही ऐतबार पर
मुझसे जुदा मेरा यकीं होंसला कोई मिला नहीं

वो हया भी शर्मसार हो गई आईने में देखकर
पर्दा भी तुने उससे किया जिससे कोई गिला नहीं

नाउम्मीद में उम्मीद की तू ही तो एक वजह थी
मैंने जो ख्वाब बोया था,हकीक़त में कोई खिला नहीं

हर अश्क में है अक्स तेरा इन्हें कैसे मैं जुदा करूँ
ये है मेरी निगार-ए-जां,रुकता कोई सिलसिला नहीं

मिलते हैं हमसे अब कहाँ बीते हुए वो कुछ मंजर
ठहरी हुई तन्हाई से क्यूँ गुजरा कोई काफिला नहीं

मेरी खबर ये लब्ज़ मेरे देते रहेंगे हाँ तुझे
तेरा ही कुछ पता नहीं तेरी ही कोई इत्तिला नहीं
अक्षय -मनं

शनिवार, 3 जनवरी 2009

प्रकृति की गोद में पलता हुआ पत्ता


बड़ती हुई दरख्त का सुखा हुआ पत्ता
आधियों की फुँकार से उड़ता हुआ पत्ता

जाने कहाँ वो जाएगा ये हवाओं का रुख बताएगा
कौन-सी राहों को ढूंढ़ता,भटकता हुआ पत्ता

काटों की चुभन,फूलों की सुगंध बस शाख पर
है सूनापन उससे फिरसे बिछड़ता हुआ पत्ता

उड़ते कब तक न थकेंगे एक डाल बैठेंगे परिंदे
उन्हें सूरज की धुप में छाव देता तपता हुआ पत्ता

मेरा सर्दियों की धुप में बदन को सेकना
यहाँ हर मौसम की मार सहता हुआ पत्ता

नशा बहुत है इन घटाओं मे शायद किसी
मधुबन की तलाश में डोलता हुआ पत्ता

सनसनाहट हुई है हवाओं में कुछ
बहारों के गीत गुनगुनाता हुआ पत्ता

कोई क्या जाने इस पत्ते की कीमत
सासों को सासों से सीता हुआ पत्ता

जब किनारों को किसी की तलाश न हो
नदियों को पुकारता आकाश न हो
तब-तब लहरों के संग लहरता बहता हुआ पत्ता

कोई रिश्ता,नाता सिर्फ़ खून से ही नही पनपता
देखो यहाँ प्रकृति की गोद में पलता हुआ पत्ता
अक्षय-मन

गुरुवार, 1 जनवरी 2009

प्यार है जितना दर्द भी उतना सच बोलूंगा अदालत से

झील में उतरा चाँद कब डरता है लहरों की हरारत से
लहरों से वो कहता है मुझे छेडो मगर नजाकत से

एक पाक़ कलमा आया है आज तेरे इन होठों पर जो
मिलता-जुलता है गीता के श्लोक,कुरान की आयत से

दिलों की खामोशियाँ जिनपर दस्तक देती ये नजरें बेजुबां
कुछ तुम कहो कुछ हम कहें ,बातें शुरू करो शिकायत से

दर्द
में ओढे रखा सिसकियों से बुना गर्माहट का लिबास
सितम ढाती सर्द हवाए रुकें कैसे मजबूर हैं अपनी आदत से

रेतीले टीलों पर बसाये हमने सपनो के कुछ अटूट घरोंदे
वो टूटते नही तुफानो से जो बने हैं खुदा की इनायत से

खंडहर भी तो बन जाते आसरा किसी बेघर के गुजारे का वो
अफ़सोस नही करते क्यूंकि उनकी औकात बड़ी है इमारत से

मरते-मारते हैं एक दुसरे को ,समझ नही आता क्यूँ
दिलों में चितायें जलती है बस, बेगुनाहों की शहादत से

हकीक़त से ख़ुद को छुपाले ऐसी शक्ल किसी की बनी नही
निगाहों पर नकाब पहने हैं जो वही इन्साफ करें शराफत से

गवाह है "अक्षय" कटघरे में खड़ी बेगुन्हा मोहब्बत का
प्यार है जितना दर्द भी उतना सच बोलूंगा अदालत से
अक्षय-मन