शनिवार, 27 सितंबर 2008

सवाल

सवालों के शहर में जवाबों के जैसे अनजान मुसाफिर हो गए हम
हर आईने में दिखती हकीक़त के गुनाहगार हो गए हम

सवालों पर सवाल आते गए आते ही रहे
देखते ही देखते सवालों के बाज़ार हो गए हम

आईने के सामने होते हुए भी हकीक़त ना जान पाए
तेरा क्या बोलूं ख़ुद की निगाहों में बेज़ार हो गए हम

सवालों को अब सवाल ही रहने दो उन्हें तलाशों मत
हम तो पूरे लुट चूके सवालों के तलबगार हो गए हम

उल्फत क्या करूं उनसे जो ख़ुद इन सवालों से अनजान हैं
उनके लिए इन सवालों के मुफ्त के इश्तिहार हो गए हम

किस गफ़लत में हो मियां सभी इन सवालों की आगोश में हैं
इसी का इज़्हार करते-करते ग़मगुस्सार हो गए हम

ना गैरत,ना गुरुर,ना है गुबार कोई हम तो बस बेगुन्हा हैं
फिर क्यूँ सवालों की सलाखों के पीछे गिरफ्तार हो गए हम
अक्षय-मन

बुधवार, 24 सितंबर 2008

पहचान


है सामने आईने के अक्स मेरा बस आईना कोई और है
पहचान तो मेरी वही है बस पहचानने वाला कोई और है


धीरे-धीरे सुलगती पहचान मेरी ना बनी आतिश
ना धुआं बन गुम होती है
ये सजा है मेरी
ये गुनहा कोई और है
है मेरी पहचान क्या
ये बात कोई और है

मुझे मेरी पहचान ख़ुद नही उन खामोशियों,तनहाइयों ने
मुझको अपनी पहचान दी है
हालात क्या थे? मजबूरियां कौन सी थी ? किस्मत कैसी थी ?
मुझे क्या पता ये सवाल कोई और हैं
है मेरी पहचान क्या
ये बात कोई और है

जिंदगी के सफर मे हजारों चहरे मिले-जुले,पहचान हुई
पर अब कोई वास्ता नही,पाँव तो अपनी जगह हैं पर
अब कोई रास्ता नही
बदलती दुनिया के साथ पहचान बदली,जिस्म तो वही है
पर अब रूह कोई और है
है मेरी पहचान क्या
ये बात कोई और है

इतने आंसू बहा लिए कि मेरी पहचान भी बह गई वक़्त
के उस दरिया में
अब मैं हालात के बहाव में बहता हूं,थाम लें जो मुझको
वो किनारे कोई और हैं
है मेरी पहचान क्या
ये बात कोई और है

नाम तलाशता हूं क्यूंकि गुमनाम हूं
पहचान तलाशता हूं क्यूंकि अनजान हूं
हालत कोरे कागज़ सी मेरी ना कोई दास्तान,
ना कोई कहानी मेरी,जो पहचाने मुझको
वो कलम कोई और है
वो कलम कोई और है
है मेरी पहचान क्या
ये बात कोई और है
ये बात कोई और है ॥

शनिवार, 13 सितंबर 2008

अर्थ ???


जिन्दगी सवालों के लिए अर्थ की एक दुकान है
अर्थ तो बेजान पड़े यहाँ लेकिन सवाल मूल्यवान है ।
रोज एक सवाल खरीदार बन चला आता है
ख़ुद सवाल बन चुकी इस ज़िन्दगी से वो सवाल
एक सवाल पूछता है
बोलो इस अर्थ के क्या दाम हैं
बोलो इस अर्थ के क्या दाम हैं ?

बिकते-लुटते वे अर्थ,आज उनका ठिकाना दुकान नही मकान है
क्या पता सवाल अर्थ पर निर्भर हैं या अर्थ सवालों पर
इससे तो ज़िन्दगी भी अनजान है
बोलो इस अर्थ के क्या दाम हैं
बोलो इस अर्थ के क्या दाम हैं ?

सवालों को उनके अर्थ तो मिल गए लेकिन उस अर्थ का क्या
वो अब बदनाम है
आज वो अर्थ सवालों के साथ रहते-रहते ख़ुद सवाल बन गए हैं
वो तो कुछ रातों के महेमान थे उनकी मंजिल तो एक वही
दुकान है
बोलो इस अर्थ के क्या दाम हैं
बोलो इस अर्थ के क्या दाम हैं ?

अब सब शब्दहीन,अर्थहीन ना कोई पहचान है
हर अर्थ पर एक प्रश्नचिन्ह वो भी गुमनाम है
सवालों पर सवाल आते गए,आते गए
ज़िन्दगी की उस दुकान में खरीदार तो बहुत थे
अर्थ नही अब तो सवालों का क्या काम है
बोलो इस अर्थ के क्या दाम हैं
बोलो इस अर्थ के क्या दाम हैं ?
अक्षय-मन

गुरुवार, 11 सितंबर 2008

गीत गाया शब्दों ने

एक हाथ में आंसू हैं जो मेरी आँख से टपके थे
दूजे हाथ कलम के रंग आंसुओं के संग,जो कोरे कागज़ रंगते थे
आसमां के आँचल में पलते थे,संवरते थे
फिर आते वो मेरे पास कल्पनाओं की उड़ान भरते हुए
जानते हो "शब्द" वो अनोखे थे ।

फूलों सी महक,कोयल सी चहक वो गीत प्यार का गाते थे
शब्द-शब्द के मिलन से एकमात्र दिल की लगन से
वो सोये मर्म को जागते थे ।

एक मैं था एक दीया था कुछ अनखिला सा उस रात खिला था
लेकिन शब्दों की भरमार थी
तन्हा रात की उस चांदनी में ना जाने क्या बात थी
क्या समाँ था क्या पवन थी गगन में तारे थे
जमीं पर जुगनूओं की झिलमिलाती रौशनी थी
वक्त ना जाने कब गुजर गया कलम तब रुकी जब पता चला
ये आज की रात हैं वो कल की रात थी ।

फिर शब्दों की बारिश हुई ऐसे जैसे आया हो सावन खुशी का
तन भीगा,मन भीगा ,भीगा है आँचल (होठ) हँसी का
जो चाहो इसे तुम मान लो चाहें मानो
आँचल आसमां का या मानो रात चाँदनी की
चाहें मानो रौशनी जुगनूओं की या मानो सावन खुशी का
ये सब तुम पर निर्भर है क्यूंकि ये सब सिर्फ़ है तुम्ही का
सिर्फ़ है तुम्ही का॥
अक्षय-मन

बुधवार, 10 सितंबर 2008

वक़्त


वक़्त की उन शाखों से टूटे हूए लम्हों का हिसाब मांगता हूं
अगर दुःख वक़्त के साथ -साथ गुजर जाता तो मैं यादों को
एक सवाल मानता हूं
ये सवाल,ये हिसाब न जाने कब सूलझे ,
वक़्त कभी नही सोता ये मैं भी जानता हूं ।

वक़्त से वक़्त माँगा वक़्त के साथ चलने के लिए
वक़्त ने हमें वक़्त तो ना दिया सवाल जरूर खड़े कर दिए
बस उन्ही सवालों में कुछ इस कदर घिरा रहा
वक़्त तो आगे बढ़ गया
और मैं वहीँ खड़ा रहा ।

सितम ढाते वक़्त को बदलने की कोशिश तो हम किए गये
इसमे गुमनाम भी हो गये चहरे भी बदल गये
लेकिन न जाने क्यूँ?
वक़्त तो ना बदला हम जरूर बदल गये
अब वक़्त जानता है हमें उसके हर सितम सहने की आदत सी हो गई
और इसपर वो सितम ढाता रहा हम सहते गये
आँसू तो ना बहे ज़ख्म जरूर नासूर बन गये
बस यही तो एक गम है कि आँसू ना बहे
वो ना बने मरहम
वो काश! बन जाते मरहम उन जख्मों के लिए
जो हर घड़ी, हर कदम वक़्त के हाथों कुरेदे गये ।

जानते हो बुरे वक़्त कि भी एक खासियत है
कि वो भी गुजर जाता है
लेकिन गुजरते हुए भी कुछ दाग दामन पर छोड़ जाता है
ये दाग दुनिया कि नज़रों से कैसे छुपा लूं ?
या फिर बुरे वक़्त के साथ ही जीवन गुजारूं
कैसे सवाल हैं ये,मुझसे क्यूँ पूछते हो मैं नही जानता हूं
वक़्त कभी नही सोता बस मैं यही जानता हूं
यही जानता हूं ॥