महफिल की झूठी चाह में भूल गई तनहाइयों को
अपना बनाया,पीछे छोड़ दिया भूल गई परछाइयों
बन आशा आवेग की बुला लिया अराजक्ताओं को सब
ये अवैध अवरोह और अब अवांछित है जीवन मेरा
इस तनाव की तरुणता से तृप्त हुआ अब तन मेरा
ये अविकल अवयव अब अवसान है मेरा
दुखो के दर्पण में दमक गया अब दिन है मेरा
अब क्या
अब मैं महफिल से मलिन हूं
सहा बहुत अब मुक्त होना चाहती हूं
अब फिर परछाइयों की पनाह ले परिमार्जन होना चाहती हूं मैं
हो हरित अब,हर्ष,हास्य,ह्रदय के साथ होश लेना चाहती हूं मैं
हो मार्मिक अब,ममता,मानवता,मित्र,माँ,मन-मंदिर
के मिलन से बना मंगलसूत्र पहेन महिला रूप लेना चाहती हूं मैं
रूप बदले मेरे मेरी परस्थियों से अब एक ही रूप धारण करना चाहती हूं मैं
बस एक ही रूप धारण करना चाहती हूं मैं
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