मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

अनोखा आभास

अनोखा आभास

एकरूप थी एक रंग थी मैं शब्दों से अतरंग थी
पीड़ा की डोर बंधी उड़ती बहती बेकल पतंग थी

जीवन मेरा, जो एक वृक्ष सा अटल खड़ा था
पल दो पल का साथी हर पत्ता ,ना कोई उमंग थी


व्याकुल है आतुर है ये कोरा कैसा आभास है
निशब्द पड़े कुछ पन्ने कलम पड़ी बेरंग थी

भीगे भीगे नयनो से जब वो लम्बी अश्रुधार बही
विचारों के आसमां में जो घटा उठी सतरंग थी

भावनाओं से ओत-प्रोत तुम खोल दो विरह हृदय की
मन-दर्पण के प्रतिबिम्ब में एक अलौकिक तरंग थी

एक हूं,तेरे अनुरूप हूं,कभी छाँव थी,अब धूप हूं
जीवन रूप बदलता गया बस मैं एकरंग थी
अक्षय-मन