शनिवार, 7 फ़रवरी 2009

दर्द का मौसम अभी आया नहीं



आँखे हैं बंजर दर्द का
मौसम अभी आया नहीं
यादों के खुले आसमान पर
बादल अभी मंडराया नहीं
आँखे हैं बंजर दर्द का
मौसम अभी आया नहीं

बहुत अजीब सा लगता है
सच ना जाने क्यूँ छुपता है
मैं अकेला हूं आज इसलिए
मैंने कभी कुछ छुपाया नहीं
आँखे हैं बंजर दर्द का
मौसम अभी आया नहीं


दोस्त कभी दो बनाये थे
वो भी हाँ शायद पराये थे
वक़्त ऐसी चाल चल गया
मैं कुछ समझ पाया नहीं
आँखे हैं बंजर दर्द का
मौसम अभी आया नहीं


कुछ पहेलियों में आज मेरी
पहेली भी शामिल होगी
रिश्तों की डोर क्यूँ है उलझी
क्यूँ इसे किसी ने सुलझाया नहीं
आंखें हैं बंजर दर्द का
मौसम अभी आया नहीं

किसी का मैं कुछ हूं
कुछ रिश्तों से बंधा हूं
कुछ रिश्तों के मायने
मैं समझ कभी पाया नहीं
आंखें हैं बंजर दर्द का
मौसम अभी आया नहीं

शब्दों की शाख पर देखो
अरमानों का परिंदा बैठा है
बहुत चाह थी उड़ने की मगर
किसी ने उसे उड़ाया नहीं
आंखें हैं बंजर दर्द का
मौसम अभी आया नहीं

अक्षय-मन

13 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत मार्मिक रचना है आपकी...मन की व्यथा को सटीक शब्द दिए हैं...बधाई...

    नीरज

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  2. बहुत सशक्त अभिव्यक्ति!

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  3. आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
    प्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
    कल (10/2/2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
    देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
    अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
    http://charchamanch.uchcharan.com

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  4. आँखें बंजर हैं...विशिष्ट अंदाज़ दर्द बयां करने का..
    बधाई

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  5. बहुत ही सुन्‍दर शब्‍द रचना ।

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  6. ati sunder geet
    jo sach nhin chhupate ve akele hi rah jate hain yhi to durbhagy hai .
    ----- sahityasurbhi.blogspot.com

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  7. सुन्दर-.सार्थक प्रस्तुति .बधाई .

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  8. हमेशा कि तरह बहुत अच्छा लिखा है 'अक्षय'
    शुभकामनाएं.
    -
    व्यस्त हूँ इन दिनों

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