
हर आईने में दिखती हकीक़त के गुनाहगार हो गए हम
सवालों पर सवाल आते गए आते ही रहे
देखते ही देखते सवालों के बाज़ार हो गए हम
आईने के सामने होते हुए भी हकीक़त ना जान पाए
तेरा क्या बोलूं ख़ुद की निगाहों में बेज़ार हो गए हम
सवालों को अब सवाल ही रहने दो उन्हें तलाशों मत
हम तो पूरे लुट चूके सवालों के तलबगार हो गए हम
उल्फत क्या करूं उनसे जो ख़ुद इन सवालों से अनजान हैं
उनके लिए इन सवालों के मुफ्त के इश्तिहार हो गए हम
किस गफ़लत में हो मियां सभी इन सवालों की आगोश में हैं
इसी का इज़्हार करते-करते ग़मगुस्सार हो गए हम
ना गैरत,ना गुरुर,ना है गुबार कोई हम तो बस बेगुन्हा हैं
फिर क्यूँ सवालों की सलाखों के पीछे गिरफ्तार हो गए हम
अक्षय-मन